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दिविक खरे, लखनऊ

भगवान राम के लिये एक-एक वानर बहुत महत्व रखते थे। ये वानर उनको प्राणों से भी प्रिय थे। कहा जाता है कि भगवान राम की सेना में करीब 10 लाख बानर थे। उनमे से कई बानर लंका युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। युद्ध के बाद देवताओं के राजा इंद्र सहित सभी देवता वहां आये। उस समय इंद्र ने रावण के वध पर प्रसन्न होकर राम से कुछ मांगने के लिये कहा। राम ने कहा मुझे कुछ नहीं चाहिये फिर भी यदि कुछ करना चाहते हो तो अमृत वर्षा करके मेरे सभी वानरों को फिर से जीवित कर दो। इंद्र ने ऐसा ही किया। ऐसा वर्णन आनंद रामायण के सार कांड के सर्ग बारह में आता हैं।

भगवान राम ने सभी वानरों को देखा तो उन्हें एक बानर कम दिखाई दिया। एक वानर को न देखकर राम ने मारुति से पूछा कि हनुमान हमारी सेना का एक वानर कम क्यों है। हनुमान जी ने उत्तर दिया कि मालूम होता है, उसे कुम्भकर्ण ने खा लिया है। हे रघुत्तम! यदि उस वानर का नख, केश अथवा लोहित आदि कुछ भी रणभूमि में शेष होता तो वह अवश्य इस अमृतवर्षा से जीवित हो जाता। यदि कहे कि अमृतवर्षा से राक्षस क्यों जीवित नहीं हुए? तो ऐसा उत्तर यह है कि उनको तो जीवित हो जाने के डर से हमने पहले ही समुद्र में फेंक दिया था। मारुति के इस वचन को सुनकर राम ने यमराज की ओर देखा। उनके देखने से ही यमराज डर गये और उन्होंने उस बंदर को खोजकर राम के आगे लाकर खड़ा कर दिया। यह देखकर राम प्रसन्न हो गये। बाद में राम ने माताल को स्वर्ग जाने की आज्ञा दे दी। वह भी राम को प्रणामकर तथा अश्वयुक्त रथ लेकर इन्द्रपुरी को चला गया। इस कथा से पता चलता है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अपने बानर सैनिकों का कितना ध्यान रखते थे।

ततो दैवैः स्तुतो रामश्चेन्द्रेण समरे मृतान् ।
वानरादीन् सुधावृष्ट्या जीवयामास सादरम् ॥१२॥

तत्रैकं वानरं रामो‍ऽदृष्ट्वा पप्रच्छ मारुतिम् ।
राघवं मारुतिः प्राह कुम्भकर्णेन भक्षितः ॥१३॥

यदि किंचित्तस्य कपेः नखकेशास्थिलोहितम् ।
रणेऽभविष्यत्पतितं तर्ह्यद्यामृतवृष्टितः ॥१४॥

अभविष्यत् जीवितः स सत्यं विद्धि रघूत्तम ।
सुधावृष्ट्या राक्षसास्ते जीवयिष्यंति वै पुनः ॥१५॥

इति भीत्या पुराऽस्माभिः सर्वे त्यक्ता महोदधौ ।
तन्मारुतेर्वचः श्रुत्वा यमराजं व्यलोकयत् ॥१६॥

यमोऽपि भीत्या रामाग्रे‍ऽर्पयत्तं प्लवगोत्तमम् ।
तं दृष्ट्वा राघवस्तुष्टः तदा‌ऽऽज्ञां नाकमुत्तमम् ॥१७॥

गंतुं ददौ मातलिने सो‍ऽपि नत्वा रघूत्तमम् ।
रथेन वाजियुक्तेन ययौ मघवतः पुरीम् ॥१८॥