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नोएडा: हिंदी दिवस के अवसर पर हम बात कर रहे हैं अपनी मातृभाषा “हिंदी” की जिसने हमें ‘अ’ से अनपढ़ से ‘ज्ञ’ से ज्ञानी बनाया। मुझे खुशी इस बात की है कि मैं हिंदी का छात्र रहा और मुझे हिंदी के मशहूर लेखक-पत्रकार और कवियों के साथ काम करने का मौका ही नहीं मिला बल्कि इन आदरणीयों के साथ रहकर हिंदी को जानने-समझने और सीखने का सौभाग्य भी मिला। हसं राज रबहर, बाबा नागार्जुन, नामवर सिंह, मृणाल पांडे, राजेन्द्र यादव, मंनू भंडारी मंगलेश डबराल, कुबेर दत्त, आलोक मेहता, राम शरण गौड़ जी जैसे तमाम वरिष्ठों के सान्निध्य में मुझे हिंदी का होने का मौका मिला।

हिंदी जिसने मुझे रोजगार का अवसर तो प्रदान किया ही साथ ही मुझे एक हिंदी लेखन – पत्रकार होने का सम्मान भी दिया। देश में आज 30 प्रतिशत लोग अभी भी ऐसे है जो कि निरक्षर है या फिर कम पढ़े लिखे हैं। इनमें से ज्यादातर संख्या उन लोगों की है जो हिंदी ही समझते हैं। ऐसे में अगर आंकड़ों की बात करें तो भारत में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या पचास करोड़ से अधिक है।

हिंदी के डिजिटल मीडिया की बात करें तो। इस क्षेत्र को विस्तार देने में हिंदी का बढ़ा योगदान है। इसी का नतीजा है कि आज हिंदी ई-मेल और डोमेन नाम का पंजीकरण होने लगा है। लेखन की बात करें तो प्रेमचंद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, माखनलाल चतुर्वेदी, महादेवी, मैथिली शरण गुप्त और रामधारी सिंह दिनकर जैसे कवियों, लेखकों और गीतकारों ने आज तक अपनी रचनाओं में हिंदी को जीवित ही नहीं रखा बल्कि पाठकों के दिलों में हिंदी की जगह भी बनाई।

बात हिन्दी दिवस के इतिहास और इसे दिवस के रूप में मनाने की करें तो वर्ष 1918 में महात्मा गांधी ने इसे जनमानस की भाषा कहा था और इसे देश की राष्ट्रभाषा भी बनाने को कहा था। लेकिन आजादी के बाद ऐसा कुछ नहीं हो सका। सत्ता में आसीन लोगों और जाति-भाषा के नाम पर राजनीति करने वालों ने उस वक्त हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनने दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारी प्रसाद द्विवेदी, सेठ गोविन्ददास और व्यौहार राजेन्द्र सिंह आदि लोगों ने बहुत से प्रयास किए। जिसके चलते इन्होंने दक्षिण भारत की कई यात्राएँ भी की और लोगों को हिंदी के प्रति जागरूक करने के लिए निरंतर अभियान चलाया।

26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू होने के साथ साथ राजभाषा नीति भी लागू हुई। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के तहत यह स्पष्ट किया गया है कि भारत की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी है। संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप है। हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी सरकारी कामकाज में किया जा सकता है। अनुच्छेद 343 (2) के अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई है कि संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक, अर्थात वर्ष 1965 तक संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए पहले की भांति अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग होता रहेगा। यह व्यवस्था इसलिए की गई थी कि इस बीच हिन्दी न जानने वाले हिन्दी सीख जायेंगे और हिन्दी भाषा को प्रशासनिक कार्यों के लिए सभी प्रकार से सक्षम बनाया जा सकेगा।

अनुच्छेद 344 में यह कहा गया कि संविधान प्रारंभ होने के 5 वर्षों के बाद और फिर उसके 10 वर्ष बाद राष्ट्रपति एक आयोग बनाएँगे, जो अन्य बातों के साथ साथ संघ के सरकारी कामकाज में हिन्दी भाषा के उत्तरोत्तर प्रयोग के बारे में और संघ के राजकीय प्रयोजनों में से सब या किसी के लिए अंग्रेज़ी भाषा के प्रयोग पर रोक लगाए जाने के बारे में राष्ट्रपति को सिफारिश करेगा। आयोग की सिफारिशों पर विचार करने के लिए इस अनुच्छेद के खंड 4 के अनुसार 30 संसद सदस्यों की एक समिति के गठन की भी व्यवस्था की गई। संविधान के अनुच्छेद 120 में कहा गया है कि संसद का कार्य हिंदी में या अंग्रेजी में किया जा सकता है।

वर्ष 1965 तक 15 वर्ष हो चुका थे, लेकिन उसके बाद भी अंग्रेजी को हटाया नहीं गया और अनुच्छेद 334 (3) में संसद को यह अधिकार दिया गया कि वह 1965 के बाद भी सरकारी कामकाज में अंग्रेज़ी का प्रयोग जारी रखने के बारे में व्यवस्था कर सकती है। अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भारत की राजभाषा है।

26 जनवरी 1965 को संसद में यह प्रस्ताव पारित हुआ कि “हिन्दी का सभी सरकारी कार्यों में उपयोग किया जाएगा, लेकिन उसके साथ साथ अंग्रेज़ी का भी सह राजभाषा के रूप में उपयोग किया जाएगा।” वर्ष 1967 में संसद में “भाषा संशोधन विधेयक” लाया गया। इसके बाद अंग्रेज़ी को अनिवार्य कर दिया गया। इस विधेयक में धारा 3(1) में हिन्दी की चर्चा तक नहीं की गई। इसके बाद अंग्रेज़ी का विरोध शुरू हुआ। 5 दिसंबर 1967 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राज्यसभा में कहा कि हम इस विधेयक में विचार विमर्श करेंगे।

वर्ष 1990 में प्रकाशित एक पुस्तक “राष्ट्रभाषा का सवाल” में शैलेश मटियानी जी ने यह सवाल किया था कि हम 14 सितम्बर को ही हिन्दी दिवस क्यों मनाते हैं। इस पर प्रेमनारायण शुक्ला जी ने हिन्दी दिवस के दिन इलाहाबाद में इसके कारण को बताया था कि इस दिन ही हिन्दी भाषा के लिए कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए थे। इस कारण इस दिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। लेकिन वे इस जवाब से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने कहा कि इस दिन को हम राष्ट्रभाषा या राजभाषा दिवस के रूप में क्यों नहीं मनाते हैं। इसके साथ ही शैलेश जी ने इस दिन हिन्दी दिवस मनाने को शर्मनाक पाखंड करार दिया था।

लेकिन हिंदी को बढ़ावा देने के लिए लड़ाई जारी रही जो आज तक जारी है। सवाल यह उठता है कि जिस हिंदी ने हमें  ‘अ’ से अनपढ़ से ‘ज्ञ’ से ज्ञानी बनाया। हम उसके कब तक असल में होंगे।

जगमोहन ‘आज़ाद’