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योजनाओं में हजारों करोड़ों रुपए खर्च करने पर भी, जिन गरीब आमजन के नाम पर योजनाएं बनती हैं, वह अपने आप को विकास की दौड़ में वहीं खड़ा पाता है जहां 20 साल पहले खड़ा था। जब तक योजनाओं में धनराशि आवंटित होती रहती है तब तक ही योजनाओं को लेकर शोर शराबा किया जाता है जो सुनाई भी देता है।

राज्य बनने के बाद जब भी नई सरकार आई आपको पिरूल से कोयला, पिरुल से ऊर्जा, सोलर एनर्जी, जैतून का तेल, लैमन ग्रास का तेल, जिरेनियम का तेल, जैट्रोफा बायो डीजल, लैन्टाना कुटीर उद्योग, रामबांस रेसा विकास, भीमल रेसा, बांस विकास, भांग की खेती, चारा विकास, कुक्कुट पालन, ब्रायलर, कड़कनाथ कुक्कुट उत्पादन, ईमू (EMU) पालन, डेरी विकास, मतस्य पालन, ट्राउट मछली पालन, अंगोरा विकास, मौन पालन, चाय बागान विकास, रेशम उत्पादन,  मशरूम उत्पादन, फूलों की खेती, सेब मिशन योजना, जड़ी बूटी विकास, फूड प्रोसेसिंग यूनिटों की स्थापना, एग्रीविजनेस ग्रोथसेन्टर, चक्कबन्दी, जैविक खेती, पारम्परिक खेती, Sustainable development, निरंतर विकास, वायो डाइवर्सिटी, जीरो बजट खेती, संरक्षित खेती, हाइड्रो फोनिक (पानी में खेती), टिशु कल्चर, बीज ग्राम, चारधाम यात्रा में जैविक प्रसाद वितरण योजना, अटल आदर्श ग्राम, चालखाल, रेनवाटर हार्वेस्टिग, जल संरक्षण व जल संवर्धन, जैविक प्रदेश (बिना जैविक एक्ट के), आयुष प्रदेश, ऊर्जा प्रदेश, पर्यटन प्रदेश आदि सुने सुनाए शब्द सुनाई देंगे। योजनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए ज्ञान प्राप्त करने हेतु- विदेश भ्रमण, प्रचार प्रसार-विज्ञापनों, पोस्टरों, होर्डिंग व सड़कों के किनारे बने पिलरों पर लिख कर खूब किया गया। Laminated साहित्य भी खूब छपे 3/5 स्टार वाले होटलों में जागरूकता व विकास गोष्ठियों, Buyers & Seller Meet, प्रशिक्षकों का प्रशिक्षण/लाभार्थियों का प्रशिक्षण, मेले व सम्मेलनों का आयोजन किया गया साथ ही योजनाओं के अनुसार विधिवत मशीनें व उपकरणों (जो बाद में सड़कों के किनारे या कमरों में जंक खाते हुए दिखाई देते हैं) तथा अन्य निवेशों की खरीद फरोक्त भी खूब हुई। योजनाओं पर करोड़ों रुपये खर्च होने के बाद भी आमजन जिनके लिए ये योजनाएं बनाई गई हैं, वे अपने आप को विकास की दौड़ में वहीं खड़ा पाता है जहां पहले था।

काल्पनिक/फर्जी आंकड़े दर्शा कर राज्य को कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय एवार्ड भी मिले हैं साथ ही राज्य में फर्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर अच्छे विकास कार्य करने पर कई गैर सरकारी संगठनों (NGO) व उनका संचालन कर रहे महानुभावों को भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा गया है।

इस सब के बावजूद पहाड़ी क्षेत्रों में गांवों के विकास की स्थिति यह है कि तीन हजार से अधिक गांव उजड़ चुके हैं और कई उजड़ने के कगार पर है। बहुत से गांव में गिनती के ही लोग रह रहे हैं। पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन के कई कारण हैं किन्तु क्षेत्र के लोगों के आर्थिक विकास तथा पलायन रोकने के लिए बनी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार भी पलायन का एक मुख्य कारण है। विभागों द्वारा विकास के नाम पर जिला योजना, राज्य सेक्टर की योजना, केंद्र पोषित योजना, वाह्य सहायतित योजनाओं में हजारों करोड़ों रुपए का बजट प्रति वर्ष विकास योजनाओं पर खर्च किया जा रहा है। आम जनता का विकास तो नहीं दिखाई देता हां नौकरशाह सप्लायरों (दलालों) व गैर सरकारी संगठनों के संस्थापकों/ संचालकों का खूब आर्थिक विकास हुआ।

जब तक योजनाओं में धन राशि आवंटित होती रहती है तब तक योजनाओं का काफी शोर गुल दिखाई/सुनाई देता है योजना बन्द होते ही बाद में योजनाओं में क्रय की गई मशीनों के अवशेष वह योजना के बोर्ड ही दिखाई देते हैं।

राज्य बनने पर आश जगी थी कि विकास योजनायें राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार बनेंगी। किन्तु दुर्भाग्य से राज्य को दक्ष व अनुभवी नेतृत्व न मिल पाने के कारण जिसका प्रशासकों ने पूरा लाभ उठाया, योजनाएं वैसे ही चल रही है जैसे उतर प्रदेश के समय में चल रही थी। राज्य के भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार योजनाओं में ज्यादा कुछ सुधार नहीं हुआ।

योजनाओं में कमी नहीं है कमी है ईमानदारी से योजनाओं में सुधार कर क्रियान्वयन की। योजनाएं नई नहीं है राज्य में हर दस पन्द्रह सालों बाद पुरानी योजनाओं को चमत्कार के रूप में दिखा कर फिर से दोहराया जाता है। किसी ने कभी भी इन योजनाओं का इतिहास जानने की कोशिश नहीं की कि पहले इन योजनाओं से अपेक्षित लाभ क्यों नहीं मिला। सरकारें बदलती रहती है किन्तु उत्तराखंड के अधिकतर तथा कथित बुद्धि जीवी सलाहकार पुराने ही होते हैं। कोई भी सरकार आये ये तथा-कथित बुद्धिजीवी अपनी जगह नई सरकार में बना ही लेते हैं तथा इन  बुद्धिजीवियों की सोच यहीं तक है कि ये बुद्धिजीवी अपने विषय को छोड़कर अन्य सभी विषयों की जानकारी सरकार को देते हैं। यदि इन बुद्धिजीवियों का पुराना इतिहास याने पढ़ाई-लिखाई  टटोली जाय तो आप पाएंगे जिस विषय पर ये सरकार को सलाह देते हैं वह इनका पढ़ाई लिखाई का विषय था ही नहीं। विभाग योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए कार्य योजना तैयार करता है। कार्य योजना में उन्हीं मदों में अधिक धनराशि रखी जाती है जिसमें आसानी से संगठित /संस्थागत भ्रष्टाचार किया जा सके, या कहें डाका डाला जा सके।

योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार की कई बार शिकायतें हुई है, जांच भी हुई, कई दोषी भी पाये गये, किन्तु दणडात्मक कार्यवाही किसी पर नहीं हुई. सभी को सम्मान पूर्वक बरी कर दिया गया।

यदि विभाग/शासन को सीधे कोई सुझाव/शिकायत भेजी जाती है तो कोई जवाब नहीं मिलता। प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री समाधान पोर्टल पर सुझाव/शिकायत अपलोड करने पर शिकायत शासन से संबंधित विभाग के निदेशक को जाती है, वहां से जिला स्तरीय अधिकारियों को तथा बाद में फील्ड स्टाफ को। विभागों से जवाब मिलता है कि कहीं से कोई लिखित शिकायत कार्यालय में दर्ज नहीं है सभी योजनाएं पारदर्शी ढंग से चल रही हैं।

उच्च स्तर पर योजनाओं का मूल्यांकन सिर्फ इस आधार पर होता है कि विभाग को कितना बजट आवंटित हुआ और अब तक कितना खर्च हुआ। राज्य में कोई ऐसा सक्षम और ईमानदार सिस्टम नहीं दिखाई देता जो धरातल पर योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में सुधार ला सके। योजनाओं में भ्रष्टाचार न पहले की सरकारों को दिखाई दिया और न ही वर्तमान सरकार को।

चल रही योजनाओं का ईमानदारी से मूल्यांकन कर योजनाओं में राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार सुधार लाकर यदि पारदर्शी ढंग से क्रियान्वयन किया जाय तो आमजन तक योजनाओं का लाभ पहुंच सकता है। वरन विकास के लिए फिर से पांच साल बाद नई सरकार…, इसी मृगतृष्णा में राज्य वासी जीते रहेंगे।

लेखक : डॉ. राजेंद्र कुकसाल, वरिष्ठ सलाहकार (कृषि एवं उद्यान) – एकीकृत आजीविका सहयोग परियोजना उत्तराखंड।