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अहिंसा परमो धर्मः

प्रकृति ने हमें बहुत सुंदर भोजन- अनाज, फल, सब्जियां, पेय पदार्थ इत्यादि उपहार स्वरूप उपलब्ध कराए हैं, तो क्यों किसी बेजुबान प्राणी की क्रूरता से हत्या कर हम उसका भक्षण करते हैं। अपनी जिव्हा के स्वाद की तृप्ति के लिए हम किसी अन्य प्राणी का दुःख भूल जाते हैं। अपने आप पर जरा सी एक खरौंच भी आ जाय या ब्लीडिंग हो जाय तो तुरंत मरहम-पट्टी या फर्स्ट-एड लेते हैं। All lives treble before death, चाहे कोई भी प्राणी क्यों न हो- गाय, सूअर, बकरी, या मुर्गा इत्यादि। सभी प्राणियों में Central Nervous System है जो उन्हें दर्द के स्पंदन का एहसास करवाता है।

मुझे तो यह भी मूर्खतापूर्ण लगता है हम लोगों ने सोसाइटी में यह अपने पूर्वाग्रहों से तय किया हुआ है कि कौन सा जानवर खाने के लिए होता है। अगर कहीं पर बकरी, कुत्ता और गाय तीनों प्राणियों की हत्या हो रही होगी तो हम स्वभाविक रूप से कुत्ते और गाय पर बड़ी दया व्यक्त करेंगे, लेकिन बकरी पर कभी नहीं, मानो बकरी में प्राण ही नहीं होता होगा। कुत्ते पर इसलिये क्योंकि वह आपका पालतू और स्वामिभक्त होता है और गाय पर इसलिए क्योंकि वह आपकी माँ है। आखिर बकरी भी तो अपने मेमने की माँ होती है।

आपके दिमाग में अपने स्वार्थवश यह लेप लगे हैं कि बकरी, मुर्गा, कबूतर, खरगोश, हिरन, जंगली सूंअर इत्यादि सिर्फ आपके खाने के लिए ही बना है। बाघ, शेर और गुलदार का तो बड़ा संरक्षण किये फिरते हो, जो तुम्हारे घर के आंगन में हंसती हुई-खेलती हुई-तुतलाते हुये नन्हें बच्चे को उठाकर कहीं दूर जंगल की झाड़ियों में भागकर ले जाता है बाद में ढूंढने पर खून के निशान के सिवा आपको कहीं बच्चे का नामोनिशान भी नहीं मिलता। ऐसे हिंसक जानवर की तो खूब advocacy करते हैं कई सारे हमारे महान पर्यावरणविद।

हमारी सरकारें, नगर पालिकाएं- नगर निगम खूब बहादुरी से Slaughter House का लाइसेंस बांटते फिरते हैं, Slaughter House के लिए शहर के आउटस्कर्ट में कहीं जगह चिन्हित करते हैं क्योंकि उन बेजुबान जानवरों की advocacy करने वाला कोई नहीं है, इनकी सुनवाई करने वाली न तो कोई न्यायपालिका या अदालत है और न ही कोई संविधान इनके पक्ष में है। संविधान ने तो इन्हें सिर्फ पशुधन माना है।

कई विद्वान जन ऐसा भी सोचते हैं कि वो सिर्फ मांस खाते हैं मारते नही हैं इसलिए उनकी क्या गलती, उन्हें तो अपने taste से मतलब है। पर वो ये नहीं जानते कि कहीं न कहीं उनके ही ऑर्डर पर तो किसी चिकन-मटन शॉप में उस प्राणी की हत्या की जाती है। कई लोग खुशी के अवसर पर या त्योहारों और परम्पराओं को निभाने के बहाने उन निरपराध प्राणियों का निर्मम कत्ल करते हैं।

कुछ लोग अल्लाह-ईश्वर के नाम पर बड़े एहसानपूर्वक किसी प्राणी की क्रूरतापूर्वक हत्या कर अपने लिए और अपने पूरे खानदान के लिए बड़ा ही पुण्य अर्जित करते हैं। यहां तक संविधान में भी यह लिख दिया कि धार्मिक उपक्रम के संबंध में बलि के नाम पर प्राणी हत्या बड़े शौक से की जा सकती है।

हम बकरीद पे पशु हिंसा का विरोध करते हैं, क्या हम हिन्दू मंदिरों में और देवता के नाम पर पशुबलि नहीं चढ़ाते? क्या हम अपने स्वाद के लिए किसी प्राणी की हत्या नहीं करते? हत्या तो हत्या है चाहे किसी भी बहाने से की जाय।

अंतर सिर्फ इतना है कि हम हिन्दू चुपके से उस बकरी को घास खिलाने का लालच देकर एक झटके में मार देते हैं और मुस्लिम बड़ी ही बहादुरी दिखाते हुए, बड़ी ही वफादारी से उस बेजुबान को तड़पा-तड़पा कर मारते हैं। इनको तो ये लगता है कि जितनी तड़प उसकी मृत्यु में होगी उतनी ही जल्दी इनको स्वर्ग या जन्नत के दरवाजे खुलेंगे, वास्तव में कितना हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण है यह सब।

मनुष्य जन्म मिलकर भी ये सब हैवानियत से भरे हैं। मनुष्य तो प्राकृतिक रूप से एक संवेदनशील प्राणी है लेकिन यहाँ तो इसके उलट सब नजर आता है। ऐसे मनुष्य तो उन पशुओं से भी बदतर हैं, जिनमें प्रकृति ने भले और बुरे को पहचानने में निर्णय करने की शक्ति नहीं दी है।

कई महानुभाव तो यह भी तर्क देते हैं कि अगर हम उन प्राणियों का भक्षण नहीं करेंगे तो पृथ्वी पर जैविक असंतुलन हो जाएगा, food chain की दुआई देते हैं और यह भी कहते हैं कि मुर्गा, बकरी आखिर खाने के लिए ही तो बने हैं वरना उनका क्या प्रयोजन है इस संसार में। हम सब लोग पता नहीं क्यों पूरे ब्रह्मांड के ठेकेदार बन जाते हैं।

यह भी उनका मत होता है कि जो शाकाहारी लोग हैं वह भी तो शाक-वनस्पति खाकर हिंसा कर रहे हैं क्योंकि पेड़-पौधों में भी जीवन है या वो खेतों में अपना अनाज को उगाने के लिए pesticide छिड़कर सूक्ष्म जीवों को मार रहे हैं, इस बिंदु पर तो मैं भी सहमत हूँ कि हमें जैविक खेती करनी चाहिए ताकि जाने अनजाने में हमसे भी कोई हिंसा न हो, किंतु शाकाहार में भी हिंसा को ढूंढना तर्कसंगत नहीं है आखिर यह पेड़-पौधे, वनस्पति तो प्रकृति ने हमें जीवन को पोषित करने के लिए दिए हैं।

सार तो यही है इस विषय का कि किसी एक व्यक्ति या थोड़े बहुत लोगों के अहिंसावादी विचार रखने से संसार में होने वाली पशु हिंसा रुक नहीं सकती है। हम जैसे भारत मे रहने वाले लोग ही नहीं वरन पश्चिम में रहने वाले कुछ लोग तो vegetarianism से एक सीढ़ी ऊपर उठकर vegan lifestyle को फॉलो करते हैं। अच्छी बातों को आत्मसात करना ही धर्म, सम्प्रदाय से निरपेक्ष होना है। किसी भी धर्मं अथवा सम्प्रदाय का व्यक्ति यदि अच्छे कर्म करता है तो निश्चय ही उसे आने वाले जन्मों में अच्छा फ़ल मिलेगा। जो कोई भी बकरी या मुर्गे को मारकर खायेगा उसे अवश्य रूप से अगले जन्म में भी बकरी या मुर्गा ही बनना पड़ेगा। यही कर्म सिद्धान्त है, जो कि पूर्णतः वैज्ञानिक और सार्वभौमिक है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने पूरी दुनिया को यही सन्देश दिया की “अहिंसा परमो धर्म” यानि अहिंसा से ऊपर कोई भी धर्म नहीं हैं। अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं।

लेखक- प्रकाश