देवभूमि उत्तराखण्ड में बसंत ऋतु के आगमन के साथ पूरी धरती फ्योंली के फूलों की चादर ओढ़ लेती है। फ्योंली एक ऐसा फूल है जो पहाड़ की लोक संस्कृति में रचा-बसा है। यहां के लोक कवियों और गायकों ने इसे अपनी रचनाओं में उकेरा ही नहीं बल्कि इसे खुद में जीया भी है। शायद यही वजह भी है आज फ्योंली के फूल के संरक्षण के लिए आवाज़ उठने लगी है और यह आवाज़ उठायी है कोटद्वार के एक अध्यापक आशीष चौहान ने। जिन्होंने मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को पत्र लिखकर मांग की है कि फ्योंली के फूल को एक विशेष दर्जा देते हुए फ्योंली के फूल को सांस्कृतिक फूल के रूप में राजकीय सांस्कृतिक फूल घोषित करने की मांग की है।
दरअसल फ्योंली के बारे में कहा जाता है कि देवगढ़ के राजा की इकलोती पुत्री का नाम फ्योंली था जो अत्यधिक सुन्दर व गुणवान थी, लेकिन गंभीर बीमारी के चलते उसकी असामयिक मौत हो गई। राजमहल के जिस कोने पर राजकुमारी की याद में राजा द्वारा स्मारक बनाया गया था उस स्थान पर पीले रंग का यह फूल खिला जिसका नाम फ्योंली रखा गया। उत्तराखंड के कई लेखकों का कहना है कि पहाड़ों में फ्यूंली का खिलना बंसन्त के आने की सूचना देता है तो कवियों के लिए उनकी रचना का विषय भी देता है। जिसकी सुन्दरता से कवि अपनी कविता की रचना करते हैं। गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी द्वारा गाया गया बेहद लोकप्रिय गढ़वाली लोकगीत..
हे जी सारयु मा फूली गे होली फ्योंली लयड़ि, मै घौर छोड़ि आवा।
हेजी घर बौंण बौड़ी गे होलु बालु बसंत मै घौर छोड़ि आवा।।
आज भी देवभूमि से दूर रह रहे उत्तराखंडियों को भावुक कर देता है। पहाड़ों में बसन्त के आगमन का संदेश लाने वाली फ्योंली न सिर्फ अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है बल्कि यह एक आयुर्वेदिक औषधि भी है, जो कि कई प्रकार के रोगों के इलाज में प्रयुक्त की जाती है। फ्योंली की सुन्दरता को लेकर आज भी पहाड़ों में खूब गीत गाए जाते हैं। पहाड़ों में खूबसूरत पीले रंग की फ्योंली का खिलना बसन्त के आने की निशानी तो है ही यदि इसके साथ लाल बुरांश भी खिलने लगे तो फिर प्रकृति की सुन्दरता चार-चांद लग जाते हैं। इस का एक सुखद परिणाम है कि आज फ्योंली के फूल के संरक्षण के लिए मांग उठ रही है। देवभूमिसंवाद.कॉम इस शिक्षक आशीष चौहान की इस अच्छी सोच और पहल का स्वागत एवं समर्थन करता है।
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