उत्तराखंड राज्य दुनिया भर में देवभूमि के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड राज्य न केवल प्राकृतिक परिदृश्य और प्राकृतिक सौंदर्य से समृद्ध है बल्कि इस प्रदेश की अपनी एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत भी है। यहॉ की प्राचीन सांस्कृतिक परंपराएं मुख्य रूप से धर्म और प्रकृति में निहित हैं। यहॉ के हर त्योहर में प्रकृति का महत्व झलकता है। इसी क्रम मे एक त्योहार है- फूलदेई।
फूलदेई उत्तराखंडी परम्परा और प्रकृति से जुड़ा सामाजिक, सांस्कृतिक और लोक-पारंपरिक त्योहार है यह त्योहर चैत्र संक्रांति -चैत्र माह के पहले दिन से शुरू होता है और अष्टमी (आठ दिन) तक चलता है। इसे गढ्वाल मे घोघा कहा जाता है। पहाड के लोगों का जीवन प्रकृति पर बहुत निर्भर होता है, इसलिये इनके त्यौहार किसी न किसी रुप में प्रकृति से जुड़े होते हैं। प्रकृति ने जो उपहार उन्हें दिया है, उसे वरदान के रूप मे स्वीकर करते है और उसके प्रति आभार वे अपने लोक त्यौहारों के माध्यम से प्रकट करते है।
फूलदेई त्योहार का संबंध भी प्रकृति के साथ जुडा है। यह बसंत ऋतु के स्वागत का प्रतीक है, बसंत ऋतु में चारो और रंग बिरंगे फूल खिल जाते है, बसन्त के आगमन से पूरा पहाड़ बुरांस और की लालिमा और गांव आडू, खुबानी के गुलाबी-सफेद रंगो से भर जाता है। फिर चैत्र महीने के पहले दिन इतने सुंदर उपहार देंने के लिये गांव के सारे बच्चों के माध्यम से प्रकृति मां का धन्यवाद अदा किया जाता है। इस दिन छोटे बच्चे खासकर लड़कियां सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, बासिंग आदि जंगली फूलो के अलावा आडू, खुबानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं। फिर बच्चे और महिलाये मिलकर घोघा देवता की डोली सजाते है। एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, और खेतों और जंगल से तोड़ कर लाये ताजे फूलों को सजाकर घोघा देवता की पूजा करते है और यह गीत गाते हुए बच्चे बारी-बारी से घोघा देवता की डोली को कंधे पर उठाकर नचाते हुए यह गीत गाते है :
फूल देई, छम्मा देई,
देणी द्वार, भर भकार,
ये देली स बारम्बार नमस्कार,
फूले द्वार……फूल देई-छ्म्मा देई।
घोघा माता फ्युला फूल
दे दे माई दाल चौल
घोघ देवता की डोली और फूलों की थाली और डलिया लेकर बच्चो की टोली पूरे ग़ाव मे घर-घर पर जाती है” और हर घर की देहरी पर फूल डालते है, वे घर की समृद्धि के लिए अपनी शुभकामनाएं देते हैं। ये फूल अच्छे भाग्य के संकेत माने जाते हैं। महिलाए घर आये बच्चों का स्वागत करती है , उन्हे उप हार मे ,चावल, गुड़, और कुछ पैसे और आशीर्वाद देते है। इस तरह से यह त्योहार आठ दिन तक चलता है। आठ्वें दिन सारे बच्चे किसी एक घर या किसी सामुहिक स्थान पर उपहार मे मिले गुड़ चावल दाल आदि से हलवा और अन्य पारम्परिक व्यंजन बनाते है। इसमे बडे लोग भी उनकी मदद करते है। इस प्रसाद से सबसे पहले देवता को चढाया जाता है बाद में सभी को बॉटा जाता है। बच्चे बडे स्वाद से ये पकवान खाते हैं और सब गॉव वालों को खिलाते है। इस प्रकार प्रकृति –पूजा का यह फ़ूलदेई त्योहार चैत्र मास के आठ्वें दिन सम्पन्न हो जाता है।
इस प्रकार से प्रकृति को धन्यवाद कहने के साथ प्रकृति के इन रंगों (फूलों के रुप में) को अपनी देहरी पर सजाकर उत्तराखण्ड प्रकृति का अभिवादन करता है।
यह एक कटु सच्चाई है कि आधुनिक जीवन की भागदौड़ और आपाधापी में हम न जाने कितनी अच्छी परंपराओं और रिवाजों को भूल चुके हैं। लेकिन ऐसे अनेक परंपराएं थी जो निस्वार्थ थी, वे “वसुधैव कटुम्बकम” और “सर्वे भवन्तु सुखिन:” का संदेश देती थीं। “फूल देई, फूल-फूल माई” उत्तराखंड की ऐसी ही एक बेजोड़ परंपरा है।
इस आयोजन को इस वर्ष भी श्रीनगर गढ़वाल के सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े लोगों द्वारा शुक्रवार दिनांक 15 मार्च 2019 को परम्परागत ढंग से प्रातः 5:30 पर फुलदेई यात्रा का आयोजन किया जाएगा जिसमें नगर के बच्चों बूढ़े द्वारा प्रतिभाग किया जाएगा तत्पश्चात शाम 5:30 पर गोला बाजार में डां. संजय पाण्डे लता तिवारी पाण्डे एवं सुभाष पाण्डे द्वारा पारम्परिक चैती गायन किया जाएगा। आयोजन में सभी श्रीनगर वासियों को सादर आमंत्रित किया गया है। सामाजिक कार्यकर्त्ता गिरिश पैन्यूली, निवर्तमान पार्षद अनुप बहुगुणा एवं शिक्षक महेश गिरि ने देवभूमिसंवाद.कॉम को इस आयोजन के बारे में अवगत करवाया।
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