गीत संगीत से सजी रामलीला की नृत्य नाटिका का हुआ भावपूर्ण मंचन
देहरादून: उत्तराखंड की लोक संस्कृति के शिखर पुरुष और प्रख्यात लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने विश्वास व्यक्त किया है कि जिस तरह से लोक भाषा की विविध विधाओं में लेखन और सृजन हो रहा है, उससे भरोसा हो रहा है कि अब हमारी लोक भाषाओं का अस्तित्व बना रहेगा। दो दशक पहले तक यह स्थिति नहीं थी, तब एक तरह का संकट मंडरा रहा था किंतु आज नई पीढ़ी अपनी भाषा, संस्कृति के प्रति सजग दिख रही है तो उम्मीदें भी बढ़ी हैं। श्री नेगी गुरुवार शाम संस्कृति विभाग का प्रेक्षागृह में हिमालयी लोक साहित्य और संस्कृति विकास ट्रस्ट के तत्वावधान में आयोजित गढ़वाली रामलीला पुस्तक के लोकार्पण समारोह को संबोधित कर रहे थे। गढ़वाली रामलीला ग्रंथ गढ़वाली के प्रसिद्ध नाटककार कुलानंद घनसाला ने लिखी है जबकि प्रकाशन विनसर पब्लिशिंग कंपनी ने किया है। इस अवसर पर श्री घनसाला द्वारा लिखित गढ़वाली रामलीला के चुनिंदा प्रसंगों का मंचन भी किया गया जिसे दर्शकों ने मुक्त कंठ से सराहा। इस अवसर पर मुख्य अतिथि उत्तराखंड शासन की मुख्य सचिव श्रीमती राधा रतूड़ी थी, जबकि पूर्व डीजीपी अनिल रतूड़ी और ग्राफिक इरा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. संजय जसोला विशिष्ट अतिथि थे। कार्यक्रम का संचालन गढ़वाली के प्रसिद्ध कवि और संस्कृतिकर्मी गिरीश सुंदरियाल ने किया।
श्री नेगी ने कुलानंद घनसाला को उनकी उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई देते हुए कहा कि रामलीला का मंचन उत्तराखंड की संस्कृति का अभिन्न अंग है और अभिनय की यह पहली पाठशाला है। रामलीलाओं से ही हमारे कला जगत में अनेक कलाकार स्थापित हुए हैं और श्री घनसाला की इस कृति के लोगों के बीच पहुंचने के बाद समाज इसे अंगीकृत करेगा।
मुख्य अतिथि श्रीमती राधा रतूड़ी ने कहा कि रामलीला का मंचन जहां सांस्कृतिक आयोजन है, वहीं इससे भाषा का संरक्षण और संवर्धन भी होगा। उन्होंने इस विशिष्ट आयोजन के लिए कुलानंद घनसाला और उनकी टीम को बधाई दी। विशिष्ट अतिथि अनिल रतूड़ी ने अपने सारगर्भित संबोधन में कहा कि राम का व्यक्तित्व विराट है। राम वैदिक युग से हैं। राम के चरित्र का वर्णन संस्कृत से लेकर तमाम भाषाओं में हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने तो उस कालखंड में रामचरित मानस की रचना की जब अकबर का शासन था। उनका कहना था कि दुनिया की अनेक सभ्यताएं खत्म हो गई लेकिन यह राम के चरित्र की विराटता ही है कि भारत की संस्कृति अमिट है। प्रो. संजय जसोला ने सुदूर पूर्व के थाईलैंड, इंडोनेशिया के अपने अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि उन लोगों ने धर्म जरूर बदला लेकिन संस्कृति नहीं छोड़ी। वहां आज भी रामलीला आयोजित होती हैं।
कुलानंद घनसाला ने अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि यह रामकाज भगवान राम ने ही उनसे करवाया है। वे 1988 से इसकी परिकल्पना कर रहे थे, अब यह साकार हुई है। उन्होंने गढ़वाली में पहली बार रामलीला का मंचन करने वाले स्व. गुणानंद पथिक और अन्य लोगों का स्मरण करते हुए कहा कि भगवान राम की प्रेरणा से अब उनका यह सपना साकार हो गया है।
कार्यक्रम के दूसरे चरण में कुलानंद घनसाला कृत रामलीला पर आधारित सम्पूर्ण रामायण के सार रूप में कलाकारों ने मंचन किया। डेढ़ घंटे की इस प्रस्तुति में दर्शक मंत्रमुग्ध होकर अभिनव प्रस्तुति का आनंद लेते रहे। खचाखच भरे प्रेक्षागृह में अनेक मौके ऐसे भी आए जब दर्शक भावविभोर दिखे।
दिनेश बौड़ाई और इंदु रावत ने सूत्रधार की शानदार भूमिका अभिनीत की। दशरथ की भूमिका रमेंद्र कोटनाला ने शानदार ढंग से निभाई, राम की भूमिका आयुष रावत, लक्ष्मण की भूमिका में आलोक सुंदरियाल, सीता की भूमिका में अनुप्रिया सुंदरियाल ने अपने अभिनय की गहरी छाप छोड़ी। विजय डबराल ने परशुराम का सशक्त अभिनय किया जबकि रावण का अभिनय दिनेश भंडारी ने किया।
शुरुआत में गौरव रतूड़ी ने श्रवण कुमार की भूमिका में और गोकुल पंवार ने शांतनु के रूप में भावविभोर किया। गोकुल पंवार ने कुछ अंतराल के बाद निषाद राज की भूमिका भी निभाई। हनुमान का किरदार मुकेश हटवाल ने निभाया। अंगद की भूमिका में ओमप्रकाश काला और शूर्पनखा की भूमिका में डॉ. सृष्टि रावत ने गहरी छाप छोड़ी। इसके अतिरिक्त कैकई की भूमिका में भावना नेगी ने एक सिद्धहस्त कलाकार का प्रमाण दिया। सीता की भूमिका निभा रही अनुप्रिया सुंदरियाल पहली बार मंच पर थी किंतु उसने अपने सशक्त अभिनय से सिद्ध किया कि वह रंगमंच की मंझी हुई कलाकार है।
इसी तरह शूर्पनखा की भूमिका निभा रही भावना नेगी ने भी अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी। गीत नाटिका के रूप में अभिनीत इस प्रस्तुति में ओम बधानी का संगीत पक्ष बेहद दमदार रहा। दृश्य परिवर्तन के साथ मंच व्यवस्था को यंत्रवत परिवर्तित करने में घनसाला की पूरी टीम बता रही थी कि टीम ने भरपूर अभ्यास किया। इस कार्यक्रम के प्रस्तुति नियंत्रक मदन मोहन डुकलान थे। डुकलान ने एक बार फिर सिद्ध किया कि वे मंच पर जितने खरे हैं, मंच के पीछे भी उतने ही कारगर हैं। निसंदेह यह प्रस्तुति लोगों को लंबे समय तक याद रहेगी और यही कुलानंद घनसाला की सफलता भी है। इसके साथ ही यह संभावना भी बढ़ गई है कि गढ़वाल में रामलीला मंचन में इस अंदाज को लोक समाज आत्मसात कर इसे आगे बढ़ाएगा। आम तौर पर हिंदी में मंचित होने वाली रामलीला अगले कुछ वर्षों में गढ़वाली में अंगीकृत हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।