नई दिल्ली: सुप्रसिद्ध लोक गायिका कल्पना चौहान को इस वर्ष डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल उत्तराखंड लोक संस्कृति सम्मान 2025 से सम्मानित किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान उनके लोक गीतों के माध्यम से उत्तराखंड की संस्कृति, परंपरा और लोक जीवन के जीवंत चित्र प्रस्तुत करने के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया गया।

बड़थ्वाल कुटुंब के स्थापना दिवस के अवसर पर दिल्ली में आयोजित सम्मान समारोह में दिल्ली साकेत डिस्ट्रिक्ट सेशन कोर्ट के जज प्रेम कुमार बड़थ्वाल, ब्रिगेडियर बड़थ्वाल, बड़थ्वाल कुटुंब के अध्यक्ष राजकुमार बड़थ्वाल सहित बड़थ्वाल कुटुंब के अन्य गणमान्य सदस्य भी मौजूद रहे।

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल, जिनके नाम पर यह सम्मान रखा गया है, हिंदी भाषा में डी.लिट की उपाधि प्राप्त करने वाले पहले भारतीय शोध विद्वान थे। उनके योगदान ने हिंदी साहित्य और भारतीय सांस्कृतिक अध्ययन को एक नई दिशा दी। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए, सम्मान समारोह में अध्यक्ष राजकुमार बड़थ्वाल ने कहा कि यह सम्मान उत्तराखंड की लोक संस्कृति को संरक्षित करने में रचनात्मक योगदान देने वालों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत है। उन्होंने लोक गायिका कल्पना चौहान के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि उनका संगीत उत्तराखंड की मातृभूमि के अद्वितीय सौंदर्य और जनजीवन की गहराई को उजागर करता है।

इस अवसर पर लोक गायिका कल्पना चौहान ने भावुक होते हुए कहा, “यह सम्मान मेरे लिए अत्यंत गर्व का विषय है। मैं इस सम्मान को उत्तराखंड की उन अनगिनत लोक कलाकारों के लिए समर्पित करती हूं, जिनके संघर्ष और समर्पण से हमारी संस्कृति आज भी जीवित है।”

समारोह में बड़थ्वाल कुटुंब के वरिष्ठ सदस्य एवं विशिष्ट अतिथियों ने भी अपने विचार व्यक्त किए। कार्यक्रम के अंत में सभी उपस्थित जनों ने एक स्वर में उत्तराखंड की लोक गीतों का आनंद लिया, जिससे कार्यक्रम का माहौल अत्यंत आत्मीय और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध बना रहा।

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल के बारे में

डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी, दर्शन और गढ़वाली में एक साथ कार्य करते हुये भारतीय साहित्य में एक कीर्तिमान स्थापित किया है. हिन्दी साहित्य के युग-प्रवर्तक पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल का जन्म 3 दिसम्बर 1902 को पौड़ी गढ़वाल के लैन्सडाउन क्षेत्र के पाली गांव में एक कर्मकांडी ब्राह्मण के घर पर हुआ था. इनके पिता गौरी दत्त बड़थ्वाल प्रख्यात ज्योतिष और माता धर्मपरायण एवं सत्यवादी थी. बाल्यकाल में ही पिता का साया उठ जाने के बाद इनके ताऊ मणिराम जी ने इनकी देखभाल की. प्रारम्भिक शिक्षा घर पर करने के उपरान्त पीताम्बर दत्त ने जुनियर हाई स्कूल श्रीनगर (गढ़वाल) से किया. इसके पश्चात् शिक्षा के लिये लखनऊ जाकर इन्होंने 1920 में कालीचरण हाई स्कूल से सम्मान सहित क लेकर मैट्रिक शिक्षा उत्तीर्ण की. इसी प्रवास में उनका परिचय हिन्दी के ख्याति प्राप्त व्यक्ति श्यामसुन्दर दास जी से हुआ जो उन्हीं के हैडमास्टर थे।

बाद में यही परिचय साहित्यिक सहयोग में परिवर्तित हो गया था। छात्रवृत्ति के सहयोग से इन्होंने पुनः 1922 में कानपुर से एफ.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। कुछ समय अस्वस्थ रहने के कारण इनकी शिक्षा में व्यवधान पड़ा। तत्पश्चात् 1926 में इन्होंने बनारस से बी.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। घोर आर्थिक संकटों के बीच पढ़ते हुये इन्होंने श्याम सुन्दर दास, जो इस समय बनारस में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष हो गये थे, के सहयोग से एम.ए. हिन्दी में प्रवेश पाया। विलक्षण प्रतिभा के फलस्वरूप 1928 में इन्होंने एम.ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस परीक्षा में उनके द्वारा लिखित छायावाद पर निबन्ध सर्वाधिक चर्चित हुआ। श्याम सुन्दर दास स्वयं इसे प्रकाशित कराना चाहते थे। किन्तु धन उपलब्ध न होने के कारण यह सम्भव नहीं हो सका। 1929 में इन्होंने बनारस से ही कानून परीक्षा उत्तीर्ण की किन्तु साहित्य साधना की ओर उन्मुख पीताम्बर इसे (कानून) पेशा नहीं बना सके।

उच्च शिक्षा ग्रहण के पश्चात् लगातार कुछ वर्षों तक पीताम्बर नौकरी के लिये दर-दर भटकते हुये इन्होंने 140 रुपये प्रतिमाह पर श्याम सुन्दर जी के साथ शोध कार्य प्रारम्भ किया। 1930 में इन्हें इसी विभाग में प्रवक्ता पद पर नौकरी मिल गई। अध्यापन कार्य के बाद इन्हें जो समय मिलता उसका उपयोग इन्होंने शोध कार्य में लगाया। इनकी अध्ययनशीलता को देखकर ही काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने इन्हें अपने शोध विभाग का संचालक नियुक्त किया। इस अवधि में बड़थ्वाल ने सैकड़ों दुर्लभ शोध ग्रन्थों (पांडुलिपियों) का पता लगाकर उनकी परिचय तालिकायें बनाई। 3 वर्ष के कठोर परिश्रम एवं अनवरत साहित्य साधना के फलस्वरूप 1931 ई। में इन्होंने अपना शोध ग्रन्थ ‘दि निर्गुण स्कूल आफ हिन्दी पोयट्री’ (हिन्दी काव्य में निर्गुणवाद) बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय में प्रस्तुत किया। इनके शोध ग्रन्थ के परीक्षक थे डॉ. टी. ग्राहम वेली (आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के हिन्दी-उर्दू विभागाध्यक्ष), प्रो. रामचन्द्र रानाडे (प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के अध्यक्ष) तथा डॉ. श्याम सुन्दर दास।

प्रो. बेली ने राय व्यक्त की कि यह शोध कार्य पी.एच.डी. डिग्री के लिये उपयुक्त है. इस पर बड़थ्वाल ने इसे पुनः वापस लेकर कुछ संशोधों के साथ इसे दुबारा परीक्षण के लिये प्रस्तुत किया। इस बार परीक्षकों ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुये उनके शोध प्रबन्ध पर उन्हें डी. लिट (डाक्टर्स आफ लिटरेचर्स) की उपाधि से सम्मानित किया। 1933 के दीक्षान्त समारोह में उन्हें यह उपाधि प्रदान की गई। डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल को हिन्दी साहित्य में डी. लिट. की उपाधि मिलना भारत के साहित्य जगत में एक उल्लेखनीय घटना थी। इस पदवी को प्राप्त करने वाले वे प्रथम भारतीय हो गये थे। इस गौरव को प्राप्त करने के बाद इनकी गणना देश के ख्याति प्राप्त विद्वानों में होने लगी थी।