sumadi ku panthya dada

श्रीनगर गढ़वाल: पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध गांव सुमाड़ी के पंथ्या दादा के बारे में ज्यादातर लोगों ने गढ़रत्न नरेन्द्र सिंह नेगी जी के लोक गीत वीर गढ़ कु देश बावन गढ़ कू देश की एक लाइन जुग-जुग तक रालु याद सुमाड़ी कु पंथ्या दादा में सुना होगा। पंथ्या दादा के बलिदान दिवस पर आज रविवार को सुमाड़ी गाँव के निवासियों द्वारा डौंर थाली (उत्तराखंड के पारंपरिक वाध्य यंत्र) से घडेला लगाकर पंथ्या दादा, भ्रदा चाची और कीर्ति का आह्वान किया गया। जिसके बाद गाँव के ही विमल चन्द्र काला के ऊपर पंथ्या दादा प्रकट हुए। सभी उपस्थित गाँववासियों द्वारा उनकी पूजा अर्चना कि गई। पंथ्या दादा ने खुश होकर सुमाडी की सुख समृद्धि का आशीर्वाद दिया। उसके पश्चात सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही परम्परा को आगे बढाते हुए उनके पितृस्थान (पितरोडी धार) में जाकर सम्पूर्ण ग्रामीणों द्वारा पितृभोज का आयोजन किया गया। पितृभोज कार्यक्रम में नेत्रमणि मलासी, सुभाष चन्द्र काला, मोहन प्रसाद काला, अचलानन्द नौटियाल, जनार्दन प्रसाद काला, ग्राम प्रधान सत्यदेव बहुगुणा, इन्द्रमोहन काला, सोहन चन्द्र काला, राजमोहन चमोली, मुकेश काला, दुर्गा प्रसाद काला, मनोज काला, प्रदीप बहुगुणा, ललित घिल्डियाल, गणेश घिल्डियाल, महिला मंगल दल आदि उपास्थित थे।

कौन थे पंथ्या दादा और क्यों उनका नाम उत्‍तराखंड की महान ऐतिहासिक गाथाओं में गौरव और सम्मान के साथ लिखा और बताया गया है?

पंथ्या दादा का जन्म सत्रहवीं शताब्दी में पौड़ी गढ़वाल के प्रसिद्ध गांव सुमाड़ी में हुआ था। कहा जाता है कि बचपन में माता-पिता का देहांत हो जाने के कारण वह अपनी बहन की ससुराल फरासू में रहने के लिए चले गए और वहीँ रहने लगे थे। उस समय गढ़वाल क्षेत्र 52 छोटे-छोटे गढ़ों में बंटा हुआ था, इसीलिए गढ़वाल को बावन गढ़ का देश भी कहा जाता था। इन्हीं गढ़पतियों में से एक शक्तिशाली राजा मेदनीशाह था। उसका वजीर सुमाड़ी का सुखराम काला था। लोक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि जब गढ़वाल पर राजा अजयपाल का अधिकार हुआ करता था, तब उसने अपनी राजधानी चाँदपुर से देवलगढ़ में स्थान्तरित कर दी थी।  और सुमाड़ी क्षेत्र, काला जाति के ब्राह्मणों को, जो कि मां गौरा के उपासक थे, दान में दे दिया था। और यह भूमि किसी भी राजा द्वारा घोषित करों से मुक्त थी।

जब मेदनीशाह यहाँ का राजा (गढ़पति) बना तो उसके दरबारियों को यह बात रास नहीं आई कि केवल सुमाड़ी गांववासी ही सभी राजकीय करों से मुक्त हैं। दरबारियों ने राजा के कान भरने शुरू कर दिए और फिर मैदिनी शाह ने राज-दरबारियों के कहने पर वजीर सुखराम काला से परामर्श लेकर सुमाड़ी की जनता को यह बोझ ढोने एवं राजकीय करों को सुचारु रुप से राजकोष में जमा करने का फरमान जारी कर दिया। सुमाड़ी में जब यह फरमान पहुंचा तो गांववासियों ने राजा का यह हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। राजाज्ञा के उल्लंघन को अपराध मानते हुए राजा ने पुनः फरमान भेजा कि उनके हुक्म पर अमल करें या गांव खाली कर दिया जाये। जब गांव वालों ने दोनों व्यवस्थाओं को मानने से इन्कार कर दिया तो बौखलाहट में मैदिनी शाह ने दण्ड स्वरुप गांव वालों को प्रतिदिन एक आदमी की बलि देने के लिये फरमान भेज दिया। इस ऐतिहासिक दण्ड को आज भी ‘रोजा’ के नाम से जाना जाता है।

लोक गीतों के अनुसार जिस दिन सुमाड़ी में पंथ्या के भाई के परिवार को ‘‘रोजा” देने के लिये नियुक्त किया। उस दिन पंथ्या फरासू में गायों को जंगल में चरा रहा था। थकान लगने के कारण उसे जंगल में ही कुछ समय के लिये नींद आ गई। इसी नींद में पंथ्या को उनकी कुलदेवी मां गौरा ने स्वप्न में दर्शन देकर सुमाड़ी पर छाये भयंकर संकट से अवगत कराया। जैसे ही पंथ्या की नींद खुली वह गायों को लेकर घर पहुंचा और बहन से सुमाड़ी जाने की अनुमति लेकर अंधेरे में ही प्रस्थान कर दिया।

सुमाड़ी पहुंच कर पंथ्या को स्वप्न की सारी बातें सच होती हुई नजर आईं। उन्होंने राजा के इस थोपे हुए फरमान को प्रजा का उत्पीड़न मानते हुए, इसके विरोध में आत्मदाह करने का एलान कर दिया। तत्पश्चात गांववासियों को स्वाभिमान से जीने की शिक्षा देकर अगले दिन वीर बालक पंथ्या ने मां गौरा देवी के चरणों में अन्तिम बार शीश नमन कर अग्निकुण्ड में अपने प्राणों की आहुति दे दी। इस ह्रदयविदारक दृश्य को पंथ्या की चाची भद्रा देवी सहन न कर सकी ओर उन्होंने भी तत्काल इसी कुण्ड में छलाँग लगा दी। इसी समय बहुगुणा परिवार की एक सुकोमल बालिका ने भी इसी अग्निकुण्ड में अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। जैसे ही इस दुःखद घटना का राजा मैदिनी शाह को पता लगा तो उन्होंने अगले तीन दिनों तक ‘रोजा’ न देने का फरमान सुमाड़ी भेज दिया।

इस घटना को लेकर प्रजा में जहां विद्रोह होने का डर राजा को सताने लगा वहीं संयोगवश इसी बीच राज परिवार दैवीय प्रकोपों के आगोश में भी तड़पने लगा। इन आकस्मिक संकटों से उबरने के लिए राजा ने राजतांत्रिक से सलाह मशविरा किया। राजतांत्रिक ने राजा को बताया कि यह दैविक विपत्तियां ब्रह्म हत्याओं और निरपराध पन्थ्या के आत्मदाह से उपजी हैं। अत: इन आत्माओं की शांति के लिए इनकी विधिवत् पूजा अर्चना करना आवश्यक है। विपत्ति में फंसे राजा ने तुरंत ही इस कार्य के लिए अपनी सहमति देकर यह कार्य संपन्न कराने के लिए तांत्रिक को सुमाड़ी भेज दिया। जहां तांत्रिक ने परंपरागत वाद्यों के माध्यम से घड़याला लगाकर पन्थ्या और उसके साथ आत्मोत्सर्ग करने वाली सभी पवित्र आत्माओं का आह्वान किया और उन सभी की प्रतिवर्ष विधिवत् पूजा अर्चना करने का वचन दिया। यह पूजा आज भी पूस (पौष) के महीने में विधिवत रूप से बड़ी श्रद्धा के साथ की जाती है।

इसी कड़ी में पंथ्या काला राजशाही की निरंकुशता के खिलाफ आत्मदाह करने वाले प्रथम ऐतिहासिक बालक थे। जिन्हें सुमाड़ी की जनता का प्यार मिलता चला आ रहा है। सुमाड़ी मुकेश काला ने बताया कि सुमाड़ी गाँव में उत्तराखण्ड की यह परम्परा एक अनूठी परम्परा है। क्योंकि पितृस्थान में शायद कोई तभी जाता है जब परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने के एक माह बाद इस स्थान पर पितृ पत्थर स्थापित किए जाते है। लेकिन सुमाड़ी गाँव में आज भी इस स्थान पर ग्रामवासियों द्वारा पितृभोज दिया जाता है। यह परम्परा पीढी दर पीढ़ी हस्तान्तरित होकर चली आ रही है।