स्वतंत्रता दिवस

73वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर, अपने इर्द-गिर्द की अनचाही तस्वीर को समर्पित है आज की यह व्यंग्य बिरखांत। लगभग दो सौ वर्ष फिरंगियों की गुलामी के बाद हमारा देश 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ। 26 जनवरी 1950 को हमारा संविधान लागू हुआ, जिसमें आज तक 123 संशोधन भी हो चुके हैं। संविधान ने हमें जो स्वतंत्रताएं दे रखी हैं उन पर हमने नहीं सोचा क्योंकि हमारे मस्तिष्क में अपनी स्वतंत्र संहिता पहले से ही डेरा डाले हुए है। हमारी इस अलिखित स्वतंत्र संहिता की न कोई सीमा है, और न कोई रूप। बिना दूसरों की परवाह किये जो कुछ हमें अच्छा लगे या हमारा मन करे वही हमारी असीमित स्वतंत्र संहिता है, भले ही इससे किसी को परेशानी हो, कोई छटपटाये या किसी का नुकसान हो।

चर्चा करें तो सबसे पहले बोलने की स्वतंत्रता को लें। हमें किसी भी समय, कुछ भी, कहीं पर भी बिना सोचे-समझे बोलने की छूट है। न छोटे-बड़े का ख्याल और न स्त्री-पुरुष का ध्यान। भाषा जितनी भी अभद्र या अश्लील हो बेरोकटोक निडर होकर उच्चतम उद्घोष के साथ बोलने पर भी हमें कोई रोक नहीं सकता। वैसे हमारी संसद में भी कुछ लोगों को असंसदीय भाषा बोलने की छूट है। गन्दगी फैलाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। हम गली, मोहल्ला, सड़क, कार्यालय, सार्वजनिक स्थान, प्याऊ, जीना-सीड़ी, रेल, बस कहीं पर भी बेझिझक थूक सकते हैं। बस में बैठकर बाहर किसी राहगीर पर, दो-पहिये सवार या कार पर थूकिये, खुल्ली छूट है।

मल-मूत्र विसर्जन की भी हमें पूरी छूट है। रेल की पटरी, नाली, नहर, नदी, सड़क के किनारे, कहीं पर भी करिए,  कोई देखता है तो देखने दीजिये, आप अनदेखी करिए। कोई बिलकुल ही पास से गुजरता है तो गर्दन घुटनों के अन्दर घुसा दीजिये, देखने वाला थूकते हुए चला जाएगा। मूत्र विसर्जन आप कहीं पर भी कर सकते हैं। दीवार पर, पेड़ की जड़ या तने पर, बिजली, टेलेफोन के खम्बे पर, खड़ी बस या कार के पहियों पर, सड़क के किनारे या कोने अथवा मोड़ पर या जहां मन करे वहां पर बिना इधर-उधर देखे खूब तबियत से कीजिए।

अपने घर को छोड़कर कहीं पर भी कूड़ा-कचरा फेंकने की भी हमें पूरी स्वतंत्रता है। फल, मूंगफली या अन्डे के छिलके, बचा हुआ भोजन, पोस्टर-कागज, प्लास्टिक थैली, गुटका, पान मसाला पाउच, बीडी-सिगरेट के डिब्बे-ठुड्डे, डिस्पोजेबल प्लेट-गिलास, बोतल, नारियल आदि कहीं पर भी लुढ़का दीजिये। झाडू लगाओ कूड़ा पड़ोस की ओर सरकाओ। कूड़े के ढेर ऐसी जगह लगाओ जहां वह दूसरों की समस्या बने। घर में सफेदी कराओ, मलवा या बचा हुआ वेस्ट पार्क, सड़क या गली में फैंको, कोई रोकने वाला नहीं। गांधी जी से लेकर मोदी जी तक 14 प्रधानमंत्री हमें समझाते रहे। हम क्यों सुनें? मैट्रो में हम डंडे के बल पर कूड़ा नहीं डालने देते, इसका हमें मलाल है।

हमें अपने जानवरों को सड़कों पर खुला छोड़ने की पूरी छूट है। हमने कुत्ते पाले हैं तो उन्हें सड़क या पार्क में ही तो घुमायेंगे। मल-मूत्र करवाने के लिए ही तो हम उन्हें वहां ले जाते हैं। पार्क-सड़क तो सभी का है, लोगों को देखकर अपने जूते-चप्पल बचा कर चलना चाहिए। हमारी यातायात सम्बन्धी आजादी तो असीमित है। बिना संकेत दिए मुड़ने, रात में प्रेशर हार्न बजाने वह भी किसी को बुलाने के लिए, तेज गति से वाहन चलाने, दुपहिये में 3-4 जनों को बिठाने, दूसरे की या किसी भी जगह वाहन पार्क करने, प्रार्थना पर बस न रोकने, बस में धूम्रपान करने, महिला-सीटों पर बैठने, भीड़ के बहाने बस में महिलाओं के शरीर से स्वयं को रगड़ते हुए आगे बढ़ने, वरिष्ठ जनों की अनदेखी करने, शराब-नशा कर वाहन चलाने तथा निर्दोष नागरिकों को टक्कर मारते हुए रफूचक्कर होने की भी हमें पूरी छूट है।

कहाँ तक बताऊँ, हमारी स्वच्छंदता के असीमित छूट का हम आनंद ले रहे हैं। महिलाओं को घूरने, उनपर कटाक्ष करने, द्विअर्थी संवाद बोलने, बहला-फुसला कर उन्हें अपने चंगुल में फ़साने, उनका यौन शोषण करने तथा उनका बसा-बसाया घर बिगाड़ने की हमें खुल्ली छूट है। हमें झूठ बोलने, कोर्ट में बयान बदलने, बयान से मुकरने, घूस देने, धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर विषवमन करने, असामाजिक तत्वों को संरक्षण देने, क़ानून की अवहेलना करने, रात को देर तक पटाखे चलाने, कटिया डाल कर बिजली चोरने, सार्वजनिक स्थानों पर नशा-धूम्रपान करने, किसी का चरित्र हनन करने, अश्लीलता देखने और पढ़ने, कन्याभ्रूण की हत्या करने, कालाबाजारी-मिलावट और तश्करी करने, फर्जी डिग्रीयां-प्रमाण पत्र लेने,  फुटपाथ खोदने, सड़क पर धार्मिक काम के नाम पर तम्बू लगाने, बिना बताये जलूस या रैली निकालने, यातायात जाम करने, गटर के ढक्कन और पानी के मीटर चुराने, पार्कों की सुन्दरता नष्ट करने, विसर्जन के नाम पर नदियों में रंग-रोगन युक्त मूर्तियाँ डालने और धार्मिक कूड़ा फैंकने, राजनीति में बेपैंदे का लोटा बनने, शहीदों और राष्ट्र भक्तों को भूलने और सरकारी दफ्तरों में बिना काम की तनख्वा लेने सहित हमारी अनेकानेक स्वतंत्रताएं हैं।

ये सभी स्वतंत्रताएं हमें कहाँ ले जायेंगी? क्या इन्हीं के लिए हमारे अग्रज शहीद हुए थे? क्या मनमर्जी के तांडव करने के लिए ही हम पैदा हुए हैं? क्या हमें दूसरों की तनिक भी परवाह है? हम अपना व्यवहार कब बदलेंगे?  हम कानून का सम्मान करना कब सीखेंगे? इन प्रश्नों को हम अनसुना न करें और इस व्यंग्य में वर्णित आजादी के बारे में स्वयं से जरूर सवाल करें। स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

पूरन चन्द्र काण्डपाल