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किसी ज़माने में उत्तराखंड के ऊंचाई वाले इलाकों में वन रिंगाल (बांस) से सजे रहते थे और वही ग्रामीणों का रोजगार भी था। रिंगाल से काश्तकार विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करते थे जो टिकाऊ व् सुंदर तो होते ही थे साथ ही इन्हे शुद्ध भी माना जाता था। रिंगाल के कारोबार ने दुनियाभर  में उत्तराखंड को एक नई पहचान दिलाई। सन 1980 में वन अधिनियम लागू होने से वनो पर से ग्रामीणों का एकाधिकार समाप्त हो गया। जिसका असर रिंगाल के काश्तकारों पर पड़ा। अब उनकी अपनी जमीन पर जो रिंगाल था वो प्रयाप्त मात्रा में न होने के कारण उन्हें मुश्किलें खड़ी होने लगी और रोजगार चौपट हो गया जिसके कारण उन्हें रोजगार के लिए अन्य स्थानों पर जाना पड़ा। उत्तराखंड से पलायन का एक मुख्य कारण ये भी है। जो काश्तकार वहां रह कर अपने इस कार्य को किसी प्रकार चला भी रहे थे तो वक्त के साथ बदलते डिजाइन व् क्वालिटी बाजार में नहीं ला पाए और फिर मणिपुर के रिंगाल के आगे उनका महत्त्व कम होने लगा। धीरे धीरे ये कला उत्तराखंड से विलुप्त सी होने लगी थी। baans-rigaal

उत्तराखंड में लगातार हो रहे पलायन को देखते हुए उत्तराखंड सरकार जागरूक हुई है व् हस्तशिल्प व् हथकरघा के क्षेत्र में लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है। हालाँकि बांस व् रिंगाल में रोजगार की अपार संभावनाओं को देखते हुए उत्तराखंड सरकार के हथकरघा व् हस्तशिल्प विकास परिषद्, उत्तराखंड बांस एवं रेशा विकास परिषद ने इस पर काम करना भी शुरू कर दिया है। उत्तराखंड सरकार अब लोगों को अपनी खेती में रिंगाल लगाने के लिए प्रेरित कर रही है व् सब्सिटी भी दे रही है। आज बाजार में जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से बनी चीजों की डिमांड बढ़ी है उसे देखते हुए रिंगाल के हस्तशिल्पियों को ट्रेनिंग भी दी जा रही है। रिंगाल से बनी टोकरी,  कंडे,  सोफे, चटाई, सजावट की वस्तुएं इत्यादि की खूब चर्चा है। इनके उत्पादन से न केवल रोजगार बढ़ेगा अपितु अंतराष्ट्रीय स्तर पर उत्तराखंड का नाम भी चमकेगा।

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रिंगाल की जड़ी गोलाकार होती हैं जो जमीन को मजबूती से पकड़े रहती है साथ ही इसका पेड़ लचीला होता है जब इसपर पानी पड़ता है तो ये झुक जाता है और जड़ें जमीन को कस कर जकड़ लेती है। अपनी इसी खूबी के कारण ही ये जमीन का कटाव नहीं होने देता।

पर अभी भी काश्तकारों के मन में डर है कि जब तक हमें बाजार उपलब्ध नहीं होता तब तक हम ये काम शुरू भी कर लें तो कोई लाभ हमें दिखाई नहीं देता। इसके लिए मेरा मानना है कि दिल्ली एक बहुत बड़ा बाजार है और हम उत्तराखंडी प्रवासी भी लाखों के संख्या में यहां है तो हम अपने इन भाइयों की बाजार की दिक्कत को पूरा कर सकते हैं। हम उनसे साज सज्जा की चीजें व् अपनी पुस्तैनी धरोहर को अपने घरों में स्थान देकर न केवल अपने घर की शोभा बढ़ाएंगे अपितु अपने भाइयों की बाजार संबंधी भ्रम को भी मिटाने में सहायक बन सकते है।  उत्तराखंड बांस एवं रेशा विकास परिषद देहरादून राष्ट्रीय बांस मिशन योजना में काश्तकारों को अपनी निजी भूमि में बांस तथा रिंगाल के उत्पादन के लिए इच्छुक काश्तकारों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के साथ ही नर्सरी, पौधरोपण, बांस तथा रिंगाल की वस्तुएं बनाने के लिए भी प्रशिक्षण देती है।                                                                                                              द्वारिका प्रसाद चमोली

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