देहरादून : आज की रफ्तार भरी जिंदगी में कई पुरानी परम्पराएं हमसे दूर होती जा रहीं हैं, या हम ही उन्हें भूलते जा रहे हैं।‌‌ चकाचौंध भरे माहौल में भौतिक सुख-सुविधाओं का भले ही बोलबाला है लेकिन सच्चाई यह भी है कि इसमें न तो वो मिठास न वो स्वाद है। लेकिन आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में लोगों को फुर्सत ही नहीं है वे विलुप्त होती परंपराओं को जीवित रखें।

आज छोटे-बड़े शहरों में बस चुके हमारे पहाड़ के लोग शादी विवाह जैसे बड़े कार्यक्रमों में भी अपने पारम्परिक खान-पान और रीति रिवाज के मुकाबले चौमीन-पिज्जा, साउथ इंडियन, पंजाबी, कॉन्टिनेंटल, थाई फूड, डीजे आदि पाश्चात्य संस्कृति की चीजों को ज्यादा महत्व देंने लगे हैं। हालाँकि इसका एक मुख्य कारण यह भी देखने में आया है कि शहरों में ये सभी चीजें आसानी से मिल जाती हैं जबकि हमारी बिलुप्त होती जा रही संस्कृति एवं पारम्परिक खान-पान की चीजें आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती थी।

अगर आज के युग में यह सब चीजें एक साथ मिल जाए तो आप शायद ही विश्वास कर पाए। लेकिन यह सच है कि एक उत्तराखंड के कैटर्स संचालक ने अपनी माटी की खुशबू, संस्कारों के साथ तरह-तरह के पहाड़ी व्यंजनों के स्वाद की परंपरा को बरकरार रखा है बल्कि आगे भी बढ़ाने में लगे हुए हैं।

आज हम बात कर रहे हैं पहाड़ के उद्यमी राजेश खुगशाल की, जिन्होंने आज से करीब एक दशक पहले कोटद्वार में “खुगशाल जी की रस्याण” के नाम से ‘खुगशाल कैटर्स’ की नींव रखी थी। इसके पीछे राजेश खुगशाल का उद्देश्य था कि जो लोग पहाड़ी खाने का देसी अंदाज, संस्कार, संस्कृति, मिठास, खुशबू भूलते जा रहे हैं उन्हें याद दिलाया जा सके। राजेश खुगशाल का कहना है कि उनके दिमाग में यह विचार तब आया जब उन्होंने देखा कि साउथ इंडियन, राजस्थानी या पंजाबी सभी अपने-अपने राज्यों के पुराने संस्कारों के साथ अपने खानपान की परंपरा को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं। राजेश ने भी अपने उत्तराखंड के लुप्त होती भोजन की सदियों पुरानी परंपरा एवं रीति रिवाजों को एक बार फिर से आगे लाने की ठान ली।

राजेश खुगशाल ने बताया कि “खुगशाल जी की रस्याण” में वे खान-पान के एक से बढ़कर एक पहाड़ी व्यंजन तो उपलब्ध कराते ही हैं। इसके साथ ही उनका पूरा शादी समारोह पहाड़ी वेडिंग थीम पर आधारित होता है। जिसमे वह न्यूतेर (प्रीति भोज) से लेकर मंगल स्नान, बारात स्वागत और विदाई तक का पूरा कार्यक्रम ठेठ पहाड़ी अंदाज करते हैं। इसके अंतर्गत असरे बनाने के लिए गंजेले से पीठू कूटना, पकोड़े बनाने के लिए सिलोटी (सिलबट्टे) में गाँव की दाल पीसना, जन्दरी में मंडवे का आटा पीसना, पहाड़ी अंदाज में दही मथना, हल्दी कूटना, दुल्हन को हल्दी लगाना, बारात स्वागत, पहाड़ी मांगल, गुत्राचार आदि सभी रीति रिवाज पारम्परिक परिधान से सुसज्जित पहाड़ की महिलाओं द्वारा किये जाते हैं। इसके लिए उनके पास बड़ी टीम है। भोजन बनाने का काम भी अधिकांश महिलाएं ही करती हैं। इसको लेकर उनका मानना है कि जो स्वाद हमारी मातृशक्ति के हाथों में होता है, वह पुरुषों के हाथ में नहीं हो सकता है. इसी लिए जो भी यहां एक बार खाना खा लेता है वह कभी भी स्वाद नहीं भूलता। राजेश खुगशाल ने बताया कि वे छोटे बड़े बजट के हिसाब से उत्तराखंड से लेकर दिल्ली-एनसीआर तथा विदेशों तक पहाड़ी संस्कृति और रीति-रिवाजों पर आधारित कार्यक्रम करते रहते हैं। आज उत्तराखंड से लेकर दिल्ली-एनसीआर तक खुगशाल जी रस्याण के चर्चे हैं। देहरादून में तो “खुगशाल जी की रस्याण” काफी फेमस हो चुकी है।

खुगशाल कैटरर्स जहाँ पहाड़ी भोजन में कंडाली का साग, तिमला की सब्जी, भंगजीरे की चटनी, गहथ का फाणु, झंगोरे की खीर आदि पारम्परिक व्यंजन बनाते हैं वहीँ पंजाबी, साउथइंडियन, गुजरती, कश्मीरी, राजस्थानी, चाइनीज, कॉन्टिनेंटल, इटैलियन, इंडियन वेज एवं नॉनवेज हर तरह का भोजन भी बनाते हैं।