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नई दिल्ली : कोरोना संकट काल में बाहरी राज्यों से उत्तराखंड लौटे अधिकांश (68 प्रतिशत) प्रवासी रोजगार के अवसरों के अभाव में अब अपने पुराने स्थानों पर वापस जाना चाहते हैं। दिल्ली के इंपैक्ट एंड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (IMPRI) तथा सेंटर फॉर वर्क एंड वेलफेयर द्वारा आप्रवासियों को लेकर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय वेबिनार में इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट (IHD) और अंतरराष्ट्रीय पैनलिस्ट ने राष्ट्रीय स्तर के अंतर-राज्य प्रवास के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय प्रवास पर कई मुद्दों पर चर्चा की।

IMPRI के प्रोफेसर बलवंत सिंह मेहता ने उत्तराखंड के बारे में बात करते हुए कहा कि तत्कालीन राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों को विकसित करने के एजेंडे के साथ राज्य को 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग किया गया था। हालाँकि, अपनी स्थापना के 20 वर्षों के बाद भी अधिकांश पहाड़ी जिले अभी भी अपने सादे समकक्षों की तुलना में पीछे हैं; राज्य के 10 पहाड़ी जिलों और तीन मैदानी जिलों के बीच भारी आर्थिक विषमता और असमानता है। परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में पहाड़ी जिलों के लोग बेहतर आजीविका के अवसरों के लिए पलायन करते हैं| 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 2011 के बाद 734 पहाड़ी क्षेत्र निर्जन हो गए हैं और जिन्हें इसी कारण ‘भुतहा गाँव‘ भी कहा जाता है।

इस समय चल रही कोरोना महामारी और लॉकडाउन अवधि के दौरान, लाखों प्रवासी अपने मूल राज्यों में लौट आए हैं।वापस लौटने वाले प्रवासी दिन और रात इस बात की चिंता में बिता रहे हैं कि पिछले दो महीनों के दौरान लॉकडाउन और कठिनाइयों का सामना करने के बाद उनके लिए आने वाला जीवन क्या होगा।

इस संदर्भ में, उत्तराखंड में लौटे प्रवासियों की आजीविका संबंधित चुनौतियों को समझने के लिए 321 उत्तरदाताओं के बीच एक टेलीफोनिक सर्वेक्षण किया गया था| जहां अनुमान लगाया गया है कि पिछले एक महीने की अवधि में 1 लाख से अधिक प्रवासी पहाड़ी जिलों में लौट आए हैं। वेबिनार में इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन डेवलपमेंट (आईएचडी) दिल्ली के प्रोफेसर आईसी अवस्थी ने बताया कि उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में लौटे प्रवासियों में से 323 लोगों से बात कर टेलीफोनिक सर्वे किया गया. 323 उत्तरदाताओं में से लगभग दो-तिहाई कुमाऊँ क्षेत्र के थे और एक-तिहाई गढ़वाल क्षेत्र के थे। उनमें से अधिकांश पुरुष प्रवासी (90 प्रतिशत) थे और केवल 10 प्रतिशत महिलाएँ थीं. जबकि 10 उत्तरदाताओं में से सात 15-29 वर्ष के युवा थे. जो मुख्यतः मुंबई, दिल्ली-एनसीआर, आदि महानगरों में काम करते थे। सर्वे में यह बात सामने आई है कि उत्तराखंड में क्योंकि रोजगार के अवसर नहीं है इसलिए अधिकांश लोग वापस लौटना चाहते हैं। सर्वे के मुताबिक अधिकांश लौटे लोग यानी 39 प्रतिशत लोग महाराष्ट्र मुख्यतः मुंबई से आए हैं। 36 प्रतिशत प्रदेश के मैदानी जिलों से, 10 प्रतिशत दिल्ली-एनसीआर से, 7 प्रतिशत राजस्थान से लौटे हैं। इनमें से अधिकांश यानी 81 प्रतिशत लोग कम वेतन वाले मसलन कुक, वेटर व निजी कंपनियों में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते थे। प्रो. अवस्थी के मुताबिक इनमें से बहुत छोटे हिस्से को ही सरकार से मदद मिल पाई क्योंकि उन्हें सरकार के राहत कार्यक्रमों का पता ही नहीं था। उन्होंने बताया कि अधिकांश यानी 68 प्रतिशत प्रवासी अपने मूल स्थानों पर रोजगार के अवसरों के अभाव में अपने पुराने स्थानों पर वापस जाना चाहते हैं।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक्शन एंड रिसर्च सोसाइटी (DARS), देहरादून, के सचिव रमेश जोशी  ने अपने दो वापसी प्रवासियों के क्षेत्र के अनुभवों को साझा किया- एक जो जर्मनी से उत्तरकाशी लौट आए और अब बेकरी में लगे हुए हैं और दूसरा अल्मोड़ा से जो मुंबई से लौटा अब एक छोटा सा होटल खोला और अच्छा कर रहा हैं।

वहीँ ब्रिटेन के मैनचेस्टर विश्वविद्यालय के सामाजिक सांख्यिकी विभाग के प्रमुख, वेंडी ऑलसेन ने बताया कि 95 प्रतिशत लोग संक्रमित होने वाली बीमारी से बच रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि प्रवासी लोग गांवों या पहाड़ी जिलों में इसलिए भी ज्यादा लौटे हैं कि उन्हें लगा कि संभवतः वे यहाँ सुरक्षित रहेंगे। सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज, तिरुवनंतपुरम के प्रोफेसर इरुदाया राजन, ने कहा कि लॉकडाउन के उद्देश्य में केंद्र व राज्य सरकार नाकाम रही और प्रवासी मजदूर इसका शिकार हुए। इनमे ज्यादातर कम कमाने वाले वेतनभोगी हैं और उन्हें लॉकडाउन अवधि के दौरान अपने नियोक्ताओं से अपना बकाया नहीं मिला। उन्होंने सवाल किया कि उनकी पिछली बचत और उनके रिश्तेदारों की मदद कब तक गांवों में उनकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए चलेगी? जब तक कि राज्य रोजगार प्रदान करके उनकी मदद करने के लिए आगे नहीं आते।

प्रोफेसर आर बी भगत, प्रमुख, प्रवासन और शहरी अध्ययन विभाग, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेज, मुंबई ने कहा कि सरकारी स्रोतों के अनुसार लगभग 4 लाख प्रवासी उत्तराखंड लौट आए हैं। उन्होंने तर्क दिया कि प्रवास मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में विकास और सीमित रोजगार के अवसरों की कमी के कारण होता है। उन्होंने कहा कि ग्रामीण विकास और शहरीकरण एक-दूसरे के पूरक हैं और वर्तमान जैसे प्रवासी संकट को रोकने के लिए हाथों-हाथ काम करना चाहिए। प्रो. भगत ने देखा कि अधिकांश प्रवास अस्थायी हैं और लगभग 80 प्रतिशत प्रवासी बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के कम वेतन और पारिश्रमिक पर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। स्पष्ट रूप से सरकार को कुछ न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा के साथ आजीविका का निर्माण करके ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में काम करना चाहिए।

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ रीजनल डेवलपमेंट, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय  के प्रोफेसर बीएस. बुटोला, अनुसार सरकार प्रवासियों के बीच घबराहट की स्थिति पैदा होने देने के बजाय स्थिति को बेहतर संभाल सकती थी। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है कि वे तुरंत उनकी मदद करें और उन्हें अपने गाँव या आस–पास के स्थानों पर आजीविका के अवसर प्रदान करें। पहाड़ी क्षेत्रों में कई स्थानीय क्षेत्र संसाधन-आधारित अवसर हैं और सरकार को इस संकट की स्थिति को अवसर के रूप में परिवर्तित करना चाहिए ताकि उन्हें कुछ बेहतर जीवनयापन प्रदान किया जा सके।

बिकास कुमार मलिक, IES, सहायक निदेशक, श्रम और रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार,ने  श्रमिकों के क्रमिक औपचारिककरण के सरकारी प्रयासों की विस्तृत जानकारी दी। वर्तमान में प्रधान मंत्री गरीब कल्याण रोज़गार अभियान की घोषणा की है जिसका उद्देश्य प्रवासी श्रमिकों के लिए एक रोजगार प्रदान करना है जिनमें  छह राज्यों में 116 जिलों की पहचान की गई हैं। उन्होंने यह भी कहा कि MGNREGS के साथ ये कार्यक्रम अधिक रोजगार पैदा करेंगे और रिटर्निंग प्रवासियों और अन्य गरीबों को आवश्यक आय-सृजन के अवसर प्रदान करेंगे

चर्चा में अपने गंतव्य राज्यों में गए प्रवासियों की समावेशिता को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बिंदु उभरकर सामने आये। केंद्र सरकार ने 20 जून को देश के 6 राज्यों के 116 जिलों के लिए 50 हजार करोड़ रुपये की प्रधानमंत्री गरीब कल्याण रोजगार अभियान की घोषणा तो की, परन्तु उसमें पहाड़ी गांवों की विशेषताओं का ध्यान नहीं रखा गया है जिससे वह पहाड़ी जिलों में कामयाब नहीं हो पा रही है। योजना में 25 किस्म के काम बताए गए हैं लेकिन यह उसी जिले में लागू हो सकती है जहां न्यूनतम 25 हजार प्रवासी मजदूर लौटे हों। इस पर सुझाव दिया गया कि पहाड़ी और पूर्वोत्तर जिलों के लिए न्यूनतम क्षमता को 25 हजार से घटाकर 10 हजार किया जाना चाहिए। साथ ही पहाड़ी जिलों के लिए योजना में कम से कम पांच हजार करोड़ रुपये का आवंटन करना चाहिए।

अंतर्राष्ट्रीय वेबिनार में जवाहर लाल नेहरू विवि के सेंटर फॉर रीजनल स्टडी के प्रो. बीएस बुटोला, आईएमपीआरआई की सीईओ व संपादकीय निदेशक सिमि मेहता, पंडित दीन दयाल उपाध्याय एक्शन एंड रिसर्च सोसायटी देहरादन के सर्वेक्षण संयोजक व सचिव रमेश जोशी, नॉर्थ हिल यूनिवर्सिटी शिलांग के अर्थशास्त्र विभाग के प्रो. उत्पल कुमार, दिल्ली यूनिवर्सिटी के सत्यवती कॉलेज के अर्थशास्त्र विभाग के प्रो. भरत सिंह, श्रम और रोजगार मंत्रालय, भारत सरकार के सहायक निदेशक, बिकास कुमार मलिक, सेंटर फॉर स्टडी ऑफ रीजनल डेवलपमेंट, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय  के प्रोफेसर बीएस. बुटोला आदि ने प्रतिभाग किया।

(source : IMPRI Impact and Policy Research Institute facebook page)