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श्रीदेव सुमन उत्तराखंड की धरती के एक ऐसे महान अमर बलिदानी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सपूत का नाम है, जो एक लेखक, पत्रकार और जननायक ही नहीं बल्कि टिहरी की ऐतिहासिक क्रांति के भी महानायक थे। मशहूर हिंदी फिल्म आनन्द मे राजेश खन्ना को वह डायलॉग ‘जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए” बाबू मुशाय, अगर किसी व्यक्ति की जिन्दगी पर फिट बैठता है, तो वो हैं मात्र 28 वर्ष 2 महीने की अल्पायु में ही अपने देश के लिए शहीद होने वाले अमर शहीद श्रीदेव सुमन। आज यानि 25 जुलाई को अमर सेनानी जननायक श्रीदेव सुमन ने अपने प्राणों की आहित दे दी थी। श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस को टिहरी में “सुमन दिवस” के रूप में मनाया जाता है।

अमर शहीद श्रीदेव सुमन के 75वें बलिदान दिवस पर गढ़वाल भवन में विशेष श्रधांजलि सभा

अमर शहीद श्रीदेव सुमन के 75वें बलिदान दिवस पर उत्तराखंड की सामाजिक संस्था टिहरी-उत्तरकाशी जन विकास परिषद द्वारा 25 जुलाई 2019 को नयी दिल्ली के गढ़वाल भवन में एक श्रधांजली सभा का आयोजन किया है. इस अवसर पर सर्वप्रथम सायं 4 बजे शहीद सुमन की याद में वृक्षारोपण किया जायेगा। उसके बाद मुख्य अतिथि एवं गण्यमान्य सदस्यों द्वारा द्वीप प्रज्वलित कर अमर शहीद के चित्र पर माल्यार्पण कर पुष्पांजलि अर्पित की जाएगी. उसके बाद सायं 5.30 बजे से शहीद सुमन की याद में काव्यांजली प्रस्तुत की जाएगी।

स्वाधीनता-हितरधीता से दूं झुका जगदीश को, मां के पदों में सुमन सा रख दूं समर्पण शीश को। जैसे शब्दों से स्वयं को ‘बोलेंदा बद्री’ यानी बोलते हुए बद्रीनाथ यानी ईश्वर बताने वाले टिहरी नरेश की राजशाही को अपना बलिदान देकर हमेशा के लिए समाप्त करने वाले सुमन (मूल नाम श्रीदत्त बड़ोनी) का जन्म उत्तराखण्ड के टिहरी गढ़वाल जिले के ग्राम जौल में 25 मई, 1915 को हुआ था। मात्र 3 वर्ष की अल्पायु मे इसके सर से पिता का साया उठ गया था. सुमन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल से हासिल की।

1930 में उन्होंने मात्र 14 वर्ष की किशोरावस्था में ‘नमक सत्याग्रह’ आन्दोलन मे भाग लेकर श्रीदेव सुमन ने साबित कर दिया था कि उनके अन्दर देश प्रेम की भावना किस हद तक भारी हुई थी. इसके आलावा छोटी सी उम्र में ही श्रीनगर में आयोजित जिला राजनैतिक सम्मेलन में शामिल हुये, तथा इस अवसर पर उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरु को अपने ओजस्वी भाषण से गढ़वाल राज्य की दुर्दशा से परिचित कराया, तथा खुद का मुरीद भी बना दिया। यहीं से उन्होंने ‘जिला गढ़वाल’ और ‘राज्य गढ़वाल’ की एकता का नारा बुलंद किया। साथ ही पूरी तरह से सार्वजनिक जीवन में आते हुए 23 जनवरी, 1939 को देहरादून में स्थापित ‘टिहरी राज्य प्रजा मंडल’ के संयोजक मंत्री चुने गये।

अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ प्रारम्भ होते ही उन्हें टिहरी आते समय 29 अगस्त 1942 को देवप्रयाग में गिरफ्तार कर लिया गया और 10 दिन मुनि की रेती जेल में रखने के बाद 6 सितम्बर को पहले ढाई महीने के लिए देहरादून जेल और फिर 15 महीने के लिए आगरा सेंट्रल जेल भेज दिया गया। 19 नवम्बर 1943 को आगरा जेल से रिहा होने के बाद वे फिर टिहरी में बढ़ रहे राजशाही के अत्याचारों के खिलाफ जनता के अधिकारों को लेकर अपनी आवाज बुलंद करने लगे। उन्हें 27 दिसम्बर 1943 को करीब डेढ़ माह में ही पुनः चम्बाखाल में गिरफ्तार कर लिया और 30 दिसम्बर को टिहरी जेल भिजवा दिया गया। 31 जनवरी 1944 को उन्हें दो साल का कारावास और 200 रुपये जुर्माना लगाकर उन्हें काल कोठरी में ठूंसकर भारी हथकड़ी व बेड़ियों में कस दिया। इस दुव्र्यवहार से खीझकर इन्होंने 29 फरवरी से 21 दिन का उपवास प्रारम्भ किया।

इस दौरान उन्हें बेंतों की सजा भी मिली। इस पर उन्होंने 3 मई 1944 से राजशाही के खिलाफ जेल में ही 84 दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल-आमरण अनशन शुरु कर दिया। तमाम उत्पीड़न, उचित उपचार न दिये जाने व लंबे उपवास के कारण 24 जुलाई की रात से ही उन्हें बेहोशी आने लगी और 25 जुलाई 1944 को शाम करीब चार बजे इस अमर सेनानी ने अपने देश व अपने आदर्शों की रक्षा के लिये 209 दिन नारकीय जीवन बिताने के बाद अपने प्राणों की आहुति दे दी। कहते हैं कि इसी रात को जेल प्रशासन ने उनकी लाश को एक कम्बल में लपेट कर भागीरथी और भिलंगना नदियों के संगम से नीचे तेज प्रवाह में जल समाधि दे दी।

लेकिन उनकी शहादत व्यर्थ नहीं गयी। अपने जीते जी न सही, अपनी शहादत के बाद वे अपना मकसद पूरा कर गये। उनकी शहादत का जनता पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उनके बलिदान का अघ्र्य पाकर टिहरी राज्य में आंदोलन और तेज हो गया। जनता ने राजशाही के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया। इसके फलस्वरूप टिहरी रियासत को प्रजामंडल को वैधानिक करार देने को मजबूर होना पड़ा।

मई 1947 में प्रजामंडल का प्रथम अधिवेशन हुआ। 1948 में जनता ने देवप्रयाग, कीर्तिनगर और टिहरी पर अधिकार कर लिया और प्रजामंडल का मंत्रिपरिषद गठित हुआ।  इसके बाद 1 अगस्त 1949 को टिहरी गढ़वाल राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हो गया। पुराने टिहरी शहर की जेल और काल कोठरी तो अब बांध बन जाने से डूब गयी है, पर नई टिहरी की जेल में उन्हें बांधने वाली हथकड़ी व बेड़ियां अब भी मौजूद हैं।

सुमन ने 17 जून 1937  को ‘‘सुमन सौरभ’’ नामक 32 पेजों का यह संग्रह प्रकाशित किया। वे हिन्दू, धर्मराज, राष्ट्रमत, कर्मभूमि जैसे हिन्दी व अंग्रेजी के पत्रों के सम्पादन से जुड़े रहे। वे ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के भी सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन्होंने गढ़ देश सेवा संघ, हिमालय सेवा संघ, हिमालय प्रांतीय देशी राज्य प्रजा परिषद, हिमालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद आदि संस्थाओं के स्थापना की।

टिहरी मे श्रीदेव सुमन के बलिदान दिवस को “सुमन दिवस” के रूप मे बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। आज भी श्रीदेव सुमन को याद कर जगह जगह स्कूली बच्चों ने प्रभात फेरी निकाली।