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माँ गौरा देवी मेला का शुभारम्भ, मां गौरा देवी भागवत कथा सुमाड़ी ग्राम मे आचार्य श्री रतीश काला की मधुर वाणी से हुआ। आचार्य श्री रतीश काला ने भागवत कथा का प्रवचन भक्तजनों को दिये। सुमाड़ी में हर वर्ष दिसम्बर माह में एक वर्ष भागवत कथा और एक वर्ष देवी यज्ञ पूजा एक भव्य मेले के रुप मे मनाया जाता है। देश और विदेश से इस पुण्य पर्व पर सुमाड़ीवासी मां गौरा का आशीर्वाद प्राप्त करने आते है। मां गौरा, काली मां का आहवान ढोल की वार्ताओं से किया जाता है।

लोक मान्यताओं के अनुसार जब राजा अजयपाल ने अपनी राजधानी चाँदपूर से देवलगढ़ में स्थान्तरित की थी, तो उन्होने सुमाड़ी क्षेत्र काला जाति के ब्राहमणों को, जो कि मां गौरा के उपासक थे, दान में दे दिया था। यह भूमि किसी भी राजा द्वारा घोषित करो से मुक्त थी। चुंकि एक मात्र सुमाड़ी गांववासी ही सभी राजकीय करों से मुक्त थे, इसलिये यह व्यवस्था राजा के कुछ दरबारीयों को फूटी आंख नही सुहाती थी। साथ ही वजीर सुखराम काला से कुछ मतभेदों के कारण कुछ दरबारी भी असन्तुष्ट थे। इन्ही असन्तुष्ट दरबारियों द्वारा राजा को सुमाड़ी वालों पर भी कर लगाने के अतिरिक्त अन्य राजकीय कार्यों को करने के लिये उकसाया गया, जिनमें दूणखेणी भी शामिल था। इसी काल में प्रजा पर मैदिनी शाह द्वारा दो अन्य कर स्ँयूदी और सुप्पा भी लगाये गये।

मैदिनी शाह ने राज-दरबारीयों के कहने पर वजीर सुखराम काला से परामर्श लेकर सुमाड़ी की जनता को बोझ ढोने एवं राजकीय करों को सुचारु रुप से राजकोष में जमा करने का फरमान जारी कर दिया। सुमाड़ी में जब यह फरमान पहुंचा तो गांव वासियों ने राजा का यह हुक्म मानने से इन्कार कर दिया। राजाज्ञा के उल्लंघन अपराध मानते हुए राजा ने पुनः फरमान भेजा कि अति शीघ्र अम्ल करें या गांव खाली कर दिया जाये। जब गांव वालों ने दोनो व्यवस्थाओं को मानने से इनकार कर दिया तो बौखलाहट में मैदिनी शाह ने दण्ड स्वरुप गांव वालों को प्रतिदिन एक आदमी बली देने के लिये फरमान भेज दिया। इस एतिहासिक दण्ड को आज भी ‘‘रोजा’’ के नाम से जाना जाता है। राजशाही का यह फरमान प्रजा के स्वाभिमान को भंग करने की एक साजिश थी। जिससे निरपराध गांव वाले बोझा ढोने के लिये तैयार हो जायें। इस फरमान के आते ही गांव में आतंक फैल गया। गांववासी राजतन्त्र की निरंकुशता से परिचित थे तथा अच्छी तरह जानते थे कि प्रजा को राजा के आदेश की अवहेलना करने की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। गांव वासी मजबूरन फरमान मानने या गांव छोड़ने को विवश होने लगे, किन्तु अन्ततः उन्होने स्वाभिमान को बचाने की खातिर ‘‘रोजा’’ देना उचित समझा।

इस घटनाक्रम के समय सुमाड़ी में अन्य जातियों के आलावा काला जाति के तीन प्रमुख परिवार थे। उदाण, भगड़ एवं पैलू, जिनमें उदाण सब से बड़े भाई का परिवार था। आज भी इन तीनों भाईयों के वंशज पितृ-पूजा के अवसरों पर अपने पूर्वजों का नाम बड़ी श्रद्धा से लेते हैं। सम्भवतः सबसे बड़े भाई का परिवार होने के कारण इस घड़ी में ‘‘रोजा’’ देने के लिये ‘‘उदाण’’ कुटुम्ब के सदस्य का आम सहमति से चुनाव किया गया होगा। दैववश जिस परिवार को सर्वप्रथम ‘‘रोजा’’ देना था उस परिवार में तीन जन थे पति, पत्नी एवं एक अबोध बालक यह पन्थया के बड़े भाई का परिवार था। पन्थया इस सारे घटनाक्रम से अनभिज्ञ फरासू में अपनी बहिन के साथ था। लोक गीतों के अनुसार जिस दिन सुमाड़ी में पन्थया के भाई के परिवार को ‘‘रोजा’’ देने के लिये नियुक्त किया गया, उस दिन पन्थया फरासू में गायों को जंगल में चुगा रहा था। थकान लगने के कारण उसे जंगल में ही कुछ समय के लिये नींद आ गई। इसी नींद में पन्थया को उनकी कुलदेवी मां गोरा ने स्वपन में दर्शन देकर सुमाड़ी पर छाये भयंकर संकट से अवगत कराया। नींद खुलने पर पन्थया ने देखा कि लगभग शाम होने वाली है। अतः वह तुरन्त गायों को इकठ्ठा कर घर ले गया और बहन से सुमाड़ी जाने की अनुमति लेकर अंधेरे में ही प्रस्थान कर दिया। फरासू से सुमाड़ी के बीच में उपरोक्त दोनो स्थान- सौडू एवं जगपठ्याली, पहाड़ की चठाई चढते समय विश्राम के काम आते थे। घर पहुंच कर पन्ययां को स्वपन की सारी बातें सच होती हुई नजर आई और उन्होने राजा के इस थोपे हुए फरमान को प्रजा का उत्पीड़न मानते हुए, इसके विरोध में आत्मदाह करने का एलान कर दिया। तत्पश्चात गांव वासीयों को स्वाभिमान से जीने की शिक्षा देकर अगले दिन वीर बालक पन्थया ने मां गौरा देवी के चरणो में अन्तिम बार सिर नवा कर अग्निकुण्ड में अपने प्राणों की आहुति दे दी।

इस ह्दय विदारक दृश्य को पन्थया की चाची भद्रा देवी सहन न कर सकी ओर उन्होने भी तत्काल इसी कुण्ड में छलाँग लगा दी। इसी समय बहुगुणा परिवार की एक सुकोमल बालिका ने भी इसी अग्निकुण्ड में अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। राजा मैदिनी शाह जैसे ही इस दुःखद घटना से अवगत हुए तो उन्होने अगले तीन दिनो तक ‘‘रोजा’’ न देने का फरमान सुमाड़ी भेज दिया। इस घटना से प्रजा में जहां विद्रोह होने का डर राजा को सताने लगा, वहीं संयोगवश इसी बीच राज-परिवार दैविक प्रकोपों के आगोश में भी तडपने लगे। इन आकस्मिक संकटों के निवारणार्थ राजा ने राजतान्त्रिक से सलाह मशविरा किया। राजतान्त्रिक ने राजा को बताया कि यह दैविक विपतियां हत्याओं एवं निरपराध ‘‘पन्थया’’ के आत्मदाह से ऊपजी हैं। अतः इन आत्माओं की शान्ति के लिये इनकी विधिवत पूजा-अर्चना करना अति आवश्यक है।

विपति में फंसे राजा ने तुरन्त ही इस कार्य के लिये अपनी स्वीकृति दे दी। सुमाड़ी पहुंच कर तान्त्रिक ने घड्याला लगा कर पन्थया एवं उनके साथ आत्म-दाह करने वाली सभी पवित्र आत्माओं का आहवान किया और उन सब की प्रतिवर्ष विधिवत पूजा करने का वचन दिया। यह पूजा आज भी पूस मास में विधिवत रुप से श्रद्धा के साथ की जाती है।

राजा द्वारा अपने अमानवीय फ़रमान के पश्चाताप हेतु परम्परा रूप मे हर वर्ष मां गौरा का यज्ञ एव पूजन धूमधाम से किया गया। इसी परम्परा को सुमाड़ी ग्रामवासियों द्वारा इस वर्ष भी भारी वर्षा के बाबजूद भागवत के समापन पर यज्ञ एवं पूजन के बाद समाप्त हुआ।

मेले में समाजसेवी मोहन काला, नेत्रमणि मलासी, अचलानन्द नौटियाल, सोहन काला, मुकेश काला, किशोर काला, प्रकाश काला, ग्राम प्रधान श्री बहुगुणा,  इद्रमोहन काला, राजेन्द्र चमोली, मनोज काला, महिला मंगल दल, ग्राम विकास समिति आदि उपास्थित थे।