दिल्ली का सेवा नगर याद दिलाता है कि लुटियन दिल्ली के आकार लेने के बाद गढ़वाल और कुमाऊं में काम कर चुके अंग्रेज अफसर जब वहां तैनात हुए तो अपने साथ यहां से कुछ सेवक भी ले गए। एक लड़ाका कौम को अंग्रेज 1815 में कुमाऊं और ब्रिटिश गढ़वाल कब्जाने के बाद कुंद कर चुके थे। उसके बाद पहाड़ियों को दिल्ली नजदीक लगने लगा और रोजी रोटी के लिए बेशुमार पहाड़ी दिल्ली जाने लगे।
पहाड़ियों ने वहां रामलीला और अन्य धार्मिक आयोजन बढ़ चढ़ कर किए लेकिन पहचान यहीं तक सीमित रही। लड़ाकापन अपने आपस में ही। कभी गढ़वाल हितैषिणी सभा को लेकर झगड़े तो कभी इलाके के संगठन बनाने में। हालांकि कुलानंद भारतीय,डॉ. खुशहालमणी घिल्डियाल जैसे पहाड़ी मूल के नेता दिल्ली नगर निगम में कई मर्तबा पार्षद रहे, लेकिन यह बात भी सच है कि इन दोनों ही नेताओं का उत्तराखंडी समाज के साथ-साथ अन्य समाज के लोगों में भी अच्छी पकड़ थी।
आज दिल्ली के दो करोड़ वोटर में पहाड़ियों की संख्या बीस लाख है तो क्या कम से कम दस विधायक नहीं होने चाहिए थे? केवल पूर्वी दिल्ली की ही बात करें तो वहां अगर सचमुच पहाड़ी एकजुट एकमुट हो जाएं तो संसद में धमक बना सकते थे लेकिन आज भी हमारे लोग सिर्फ और सिर्फ राग रंग तक सीमित हैं। राजनीतिक ताकत दिखाने में न जाने क्यों संकोच है?
इस बार एमसीडी चुनाव में उत्तराखंडियों की भागीदारी थोड़ी बड़ी जरूर है लेकिन संतोषजनक नहीं है। भाजपा ने नौ पहाड़ियों को टिकट दिए तो उनमें से दिलशाद गार्डन वार्ड से बीर सिंह पंवार, पांडव नगर से यशपाल कैंतुरा, विनोद नगर से रवि नेगी, गीता कॉलोनी से नीमा भगत, नीतू बिष्ट और आनन्द विहार से मोनिका पंत विजयी रही। तीन प्रत्याशी उसके हार गए। इनमें से आरके पुरम से तुलसी जोशी, नांगलोई से नरेन्द्र मनराल और और संतनगर बुराड़ी से रेखा रावत हार गए।
तुलसी जोशी पहले से पार्षद थी। उनकी हार पहाड़ियों के बिखराव का ही नतीजा रही है। आम आदमी पार्टी ने दो प्रत्याशी दिए थे। दोनों ही जगहों पर उसने रणनीतिक रूप से पहाड़ियों को पहाड़ियों से लड़ाया। संतनगर बुराड़ी में उसने रेखा रावत के मुकाबले रूबी रावत को खड़ा किया जबकि दूसरा प्रत्याशी विनोदनगर से कुलदीप भंडारी उतारा था। इसके अलावा जद यू ने संजय नेगी को टिकट दिया लेकिन वह जीत नहीं पाए। तीन अन्य पहाड़ियों ने निर्दलीय जोर आजमाया था लेकिन जीत किसी को भी नसीब नहीं हुई।
कांग्रेस से टिकट की उम्मीद करने का फिलहाल वक्त भी नहीं है लेकिन क्या यह सवाल वाजिब नहीं है कि विधायक की बात हो तो पहाड़ की भी हिस्सेदारी हो।
साल 1993 में जब पहली मर्तबा दिल्ली में विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस ने वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष उप्रेती को मंडावली विधानसभा से चुनाव मैदान में उतारा। आशुतोष उप्रेती को भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार मुरारी सिंह पंवार ने करारी शिकस्त देकर दिल्ली विधानसभा में उत्तराखंड मूल के पहले विधायक के तौर पर इतिहास दर्ज किया। इस तरह से पहाड़ी के खिलाफ पहाड़ी उम्मीदवार उतारने का रिवाज राष्ट्रीय राजनैतिक दलों का पहले से ही है। यह बात दीगर है कि दूसरी बार जब मुरारी सिंह पंवार पर भारतीय जनता पार्टी ने भरोसा जताया तो जनता दल से प्रह्लाद गुसाई और निर्दलीय प्रत्याशी विजय ढौंडियाल ने मुरारी सिंह पंवार की जीत पक्की को हार पक्की में तब्दील कर कांगेस की मीरा भारद्वाज को मंडावली विधानसभा से विधायक बनवा दिया। डॉ. गोविंद चातक अक्सर कहते थे, जिस दिन पहाड़ी अपने हृदय में हिमालय जैसी विराटता को धारण करेंगे, उसी दिन हमारा समाज उन्नति के चरम पर पहुंच सकता है। वर्तमान में करावल नगर से मोहनसिंह बिष्ट एकमात्र पर्वतीय विधायक हैं। बिष्ट ने अल्मोड़ा से निकलकर वर्षों त्याग तपस्या की।
टीवी पत्रकार मनु पंवार भी राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में पहाड़ियों के बिखराव पर चिंतित नजर आते हैं। वे कहते हैं कि जब तक दूसरे समाजों की तरह हम अपने हक को छीनने की कुब्बत हासिल नहीं करते, तब तक इसी तरह बंटे रहेंगे और सुख दूसरे लोग उठाते रहेंगे। मनु पंवार मानते हैं कि पहाड़ियों को अपनी पॉलिटिकल फोर्स को प्रदर्शित करना होगा अन्यथा वे हमेशा दूसरों का टूल बन कर रह जायेंगे।
गढ़वाल हितैषणी सभा दिल्ली के पूर्व पदाधिकारी पवन मैठाणी मानते हैं कि हम लोगों को सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक सीमित रहने की प्रवृत्ति से बाहर आना होगा। वे याद करते हैं कि उमेश डोभाल हत्याकांड के समय वोट क्लब पर प्रदर्शन, उत्तराखंड आंदोलन के दौरान वोट क्लब तथा लाल किला रैली के अलावा हमारे समाज ने सड़कों पर कहीं कोई उपस्थिति दर्ज नहीं कराई। इन बातों को भी अरसा बीत गया है। किरन नेगी हत्या कांड में ही समाज कहां आगे आया। लोग घेंघे की तरह अपने तक सीमित हैं। मात्र कुछ लोग पहाड़ की अस्मिता के लिए फिक्रमंद हैं, ऐसे में पॉलिटिकल फोर्स की बात कैसे की जा सकती है।
द्वारिका में रह रहे प्रताप सिंह रावत भी कुछ इसी तरह की बात करते हैं। वे मानते हैं कि अपनी ताकत का अहसास कराए बिना कोई राजनीतिक दल हमें महत्व नहीं देगा। लिहाजा अब हक छीनने का वक्त आ गया है।
वैसे देखा जाए तो तीन चार दशक पहले पहाड़ी समाज अपना हक छीनने की स्थिति में नहीं था। उच्च मध्यम वर्ग की अलग दुनिया होती है, उससे आर्थिक और नैतिक समर्थन तो हासिल किया जा सकता है लेकिन सड़क पर उतरने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। नौकरीपेशा मध्यम वर्ग की दशा भी कुछ इसी तरह है। इस कारण नेतृत्व नहीं उभर पाया किंतु अब स्थिति थोड़ा बदलती दिख रही है।
देखा जाए तो अपना हक हासिल करने में उत्तराखंडी लोग हिमाचल से भी कुछ नहीं सीख पाए, हिमाचल के लोग किसी एक दल के पिछलग्गू नहीं बने रहते, वे हर पांच साल में बदलाव लाते रहते हैं, इस कारण हर पार्टी फिक्रमंद रहती है कि कहीं कोई गलती न हो जाए। उत्तराखंड इस लीक पर नहीं चला तो प्रवासियों से भी क्यों उम्मीद की जाए?
आज के दौर में दिल्ली में उत्तराखंड के प्रवासी अच्छी स्थिति में जरूर हैं लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है। यह संख्या कैसे बढ़ेगी? इस पर सोचने की जरूरत है। वैसे पूर्वी दिल्ली में सबसे ज्यादा उत्तराखंडी रहते हैं और अगर एकजुटता हो जाए तो यहां से एक अदद सांसद पहाड़ी चुन सकते हैं लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी है। तात्कालिक जरूरत तो यह है कि अगर अगले दो तीन साल में प्रवासी उत्तराखंडी एक हो जाएं तो कोई पार्टी टिकट दे या न दे, दस विधायक तो विधानसभा में भेज ही सकते हैं। उस स्थिति में पार्टियों की मजबूरी हो जायेगी कि वे उत्तराखंडियो की उपेक्षा नहीं कर पाएंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में पहाड़ी अपना हक छीनने की हैसियत में आ जाएंगे। यहां उत्तराखंड में तो हम 52 गढ़ों में लड़ते रहे हैं, दिल्ली में तो कम से कम एक होकर दिखा ही सकते हैं।