कल्जीखाल : उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के जंगलों का खट्टा-मीठा रसीला फल काफल इस वर्ष देखने को भी नहीं मिल रहा है। अप्रैल के अंतिम सप्ताह से लेकर जून के मध्य तक पहाड़ के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पाए जाने वाला काफ़ल इस बार पेड़ों से तकरीब गायब है। हमारे संवाददाता जगमोहन डांगी ने पिछले दिनों अपने क्षेत्र के आसपास के जंगलों का भ्रमण किया। उन्होंने बताया कि इन दिनों अक्सर जगलों में गहरे लाल रंग के काफलों लबालब से भरे पेड़ दूर से दिखाई देते थे। परन्तु इस बार ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला। इस बार पौड़ी जनपद के कल्जीखाल ब्लॉक के आसपास के जंगलों में काफल के पेड़ खाली ही नजर आ रहे हैं। कमोबेश यही हाल पहाड़ के ज्यादातर जंगलों का है।
उल्लेखनीय है कि इन दिनों अधिकतर प्रवासी गांव में काफ़ल खाने ही आते थे। गर्मियों की छुट्टियों में युवक काफ़ल तोड़कर बाजारों में बेचते थे। आपने अक़्सर देखा होगा पौड़ी, श्रीनगर, गुमखाल, कोटद्वार आदि कस्बो में मई जून में आसानी से काफ़ल बेचते हुए दिखाई देते थे। हालांकि इस साल कोरोना महामारी के चलते बाजार भी बंद ही थे।
वरिष्ठ पत्रकार अजय रावत अजय का कहना है इस साल फरवरी मार्च में पहाड़ों के जंगलो में कई दिनों तक लगी भयंकर आग इसका मुख्य कारण है। जिस समय काफल के पेड़ों पर फूल या फल छोटे-छोटे काफल आये थे उसी समय जगंलों में लगी आग के चलते काफल नष्ट हो गए। इसके अलावा समय पर बारिश नही होना भी इसका एक बड़ा कारण है। साथ ही गत वर्ष काफ़ल तोड़ने वालों द्वारा अनावश्यक टहनियां तोडना भी इसका एक कारण हो सकता है। हालाँकि उन्होने कहा कि काफल के साथ ऐसा देखा गया है कि एक साल अगर बहुत ज्यादा मात्रा में आते हैं तो उसके अगले साल काफी कम मात्रा में काफल लगते हैं, परन्तु अपने जीवन काल ऐसा कभी नही देखा कि बिल्कुल ही काफ़ल फल नही लगे हों। इस बार काफल को जंगल की आग ने पूरी तरह बर्बाद कर दिया है।
तमाम औषधीय गुणों से भरपूर काफल गर्मी के मौसम मे थकान दूर करने वाला फल है। इसके सेवन से स्ट्रोक और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा कम हो जाता है। एंटी-ऑक्सीडेंट तत्व होने के कारण इसे खाने से पेट संबंधित रोगों से भी निजात मिलती है। इसके अलावा काफल स्थानीय लोगों को करीब दो माह के लिए रोजगार का साधन भी बनता है।
जगमोहन डांगी की विशेष रिपोर्ट