उत्तराखंडवासियों के लिए आज के दिन की शुरुवात बेहद दुखद खबर के साथ हुई। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी एवं वरिष्ठ समाजसेवी ठाकुर नंदन सिंह रावत का आज सोमवार को दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में अकस्मात देहांत हो गया। कोरोना बीमारी से पीड़ित ठाकुर नंदन सिंह रावत का कुछ दिन से दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में इलाज चल रहा था। आज सुबह करीब 4 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। समाजसेवी नंदन सिंह रावत का दुनिया से चले जाना उत्तराखंड समाज के लिये अप्पूर्णया क्षति है। नंदन सिंह रावत कोरोना काल में जरुरतमंदों को अपनी सेवा देते हुये खुद कोरोना संक्रमित हो गये थे. उन्हें कल प्लाज़्मा की आवश्यकता पड़ी थी, डॉक्टरों के मुताबिक़ उनको प्लाज़्मा दिया गया था परन्तु फिर भी उन्हें बचाया नहीं जा सका।
उनके देहांत की दुखद खबर आते ही दिल्ली/एनसीआर से लेकर उत्तराखंड तक उत्तराखंडवासियों में शोक की लहर फैल गई है। मूलरूप से अमोड़ा जिले के पत्थरकोट के रहने वाले 53 वर्षीय नंदन सिंह रावत उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी होने के साथ साथ उत्तरांचल भ्रांति सेवा संस्था, एक जुट एक मुट सहित दिल्ली/एनसीआर में कई सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए थे।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान ठाकुर नंदन सिंह रावत के साथ राज्य आन्दोलन में भाग ले चुके वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता प्रदीप वेदवाल ने नंदन सिंह रावत जी के आकस्मिक निधन पर गहरा दुःख व्यक्त करते हुए उनके साथ उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान बिताये समय को याद करते हुए कहा कि..
बात दिल्ली की है, उन दिनों उत्तराखंड राज्य आंदोलन के निर्णायक दौर की लड़ाई लड़ रहे थे हम लोग। आज भले ही हम इसे निर्णायक दौर की लड़ाई मानते हैं लेकिन उस वक्त की जमीनी हकीकत ये भी कि हमें भी नहीं मालूम था कि उत्तराखंड राज्य के लिए अभी हमें कितना संघर्ष करना पड़ेगा। किस-किस को कितनी-कितनी और कैसी-कैसी कुर्बानियां देनी होंगी। उन दिनों हम आंदोलनकारी जंतर-मंतर से लेकर पार्लियामेन्ट थाने तक जाते थे। अपनी मांग को लेकर नारे लगाते, लोगों को संबोधित करते और ज्ञापन देकर फिर आगे की रणनीति में जुट जाते। उत्तराखंड राज्य आंदोलन ने मुझे उत्तराखंड के कई ऐसे मित्र और समाजिक कार्यकर्ताओं से परिचय करवाया है जिनसे मेरा घनिष्ठ रिश्तेदार की तरह संबंध रहा है। ठाकुर नंदन सिंह रावत जी से भी मेरा परिचय उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान ही हुआ था। ये परिचय कब मित्रता में बदल गया पता ही नहीं चला। आज जबकि ठाकुर साहब हम सबको छोड़कर चले गए हैं तो मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूं कि नंदन भाई से पहली मुलाक़ात कब हुई होगी। याद नहीं आ रहा कि पहली मुलाक़ात कब हुई थी उनसे लेकिन ये अच्छी तरह से याद है कि दिल्ली-एनसीआर में जहां-जहां और जब-जब भी उत्तराखंड के हितों की और उत्तराखंडियों की बेहतरी के लिए कोई बात होती थी तो नंदन भाई जी वहां पर जरूर होते हैं और दिल से मौजूद होते थे। रश्मअदायगी ठाकुर साहब के स्वभाव में नहीं थी और ये ही वजह है कि चेहरा दिखाने वालों को कई बार आईना दिखाने से भी नहीं चूकते थे रावत जी।
उत्तराखंड राज्य आंदोलन की कौन सी रैली या फिर कौन से सेमिनार में नंदन सिंह रावत जी से परिचय हुआ ये बात मुझे तमाम कोशिशों के बावजूद याद नहीं आ रही है। लेकिन एक दिन की बात मै आपके साथ जरूर शेयर करना चाहूंगा। उस दिन कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता चतुरारन मिश्र जी संसद मार्ग थाने के सामने उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को संबोधित कर रहे थे। वो अपनी बात अंग्रेजी में रख रहे थे तब नंदन सिंह रावत जी ने कहा था कि क्या ही बेहतर हो कि नेताजी अपनी बात हिन्दी में रखें ताकि हिन्दी बहुल उत्तराखंड राज्य समर्थक ज्यादा से ज्यादा लोग आपकी बात को समझ सकें, उस पर अमल कर सकें। तब नंदन भाई की बात पर अमल करते हुए एक अन्य कम्युनिस्ट नेता और उत्तराखंड मूल के नारायण दत्त सुंद्रियाल जी ने चतुरारन मिश्र जी के भाषण का हिंदी अनुवाद सुनाया। अच्छी तरह याद है मुझे भाषण खत्म होने के बाद चतुरारन मिश्र जी ने तब नंदन सिंह रावत जी, हरीश भदोला जी और मुझसे मुखातिब होते हुए महज तीन से पांच मिनट बड़ी यादगार बात की थी। हां उस रोज जिस टैम्पों से नेताओं ने भाषणबाजी की थी उसी टैम्पों से लोकगायिका मंगला रावत जी ने दो-तीन जनगीत भी सुनाए थे। भाषणबाजी हुई, ज्ञापन भी दिया गया। कुछ आंदोलनकारी साथी भट्ट जी की चाय की दुकान की तरफ तो कुछ बैंक आॅफ बड़ोदा के बस स्टैंड की तरफ और बाकी कुछ होटल पार्क के बस स्टैंड की तरफ चल दिए। जिन नेताओं और राज्य आंदोलनकारियों को उस जमाने में छपास की बीमारी थी वो प्रेस विज्ञप्ति लेकर अखबारों के दफ्तरों में अपने-अपने आकाओं को तलाशने निकल पड़े थे।
जिस टैम्पों में खड़े होकर भाषणबाजी और जनजागरण गीतों का दौर चला था। अब उस टैम्पों का ड्राइवर शिकायत लेकर हमारे सामने खडा था। ड्राईवर का कहना था कि रैली में आए लोगों में से किसी ने उसका पर्स मार लिया है। टैम्पों का प्रबंध आंदोलनकारी साथी, गायक, कवि और पत्रकार हरीश भदोला के जिम्मे था इसलिए उन्होंने ही पूछा कि कितने रुपये थे तुम्हारे पर्स में तो ड्राइवर ने जवाब दिया रुपये तो सौ-डेढ़ से ज्यादा नहीं होंगे लेकिन मैंने हाल ही में भारी भरकम घूस देकर कमर्शियल ड्राइविंग लाइसेंस बनवाया है। अब क्या होगा। ड्राइवर ने कहा कि पहाड़ियों की ये रैली मुझे बहुत महंगी पड़ गई। उसकी बात सुनकर हम दंग रह गए लेकिन क्या कहते कुछ कहने को ही नहीं था सिवाए अफसोस के। फिर सबने तय किया कि अब संसद मार्ग थाने में ड्राइवर की जेब कटने की शिकायत दर्ज कराई जाए। ड्राईवर टैम्पों में चढ़ा चाबी निकालने को हुआ तो वो जोर से चिल्लाया अरे मेरा पर्स मिल गया, मेरा लाइसेंस, पैसा सब मिल गया। दरअसल जब तक टैम्पों में भाषणबाजी हो रही थी तब तक थका हारा ड्राइवर अपनी नींद पूरी कर रहा था और लेकिन लाउडस्पीकर के शोर नींद कहीं आती भला। लेकिन इसी बेचैनी में ही उसका पर्स क्लच, ब्रेक के पास गिर गया था। अब ड्राइवर पर हावी होने की बारी हमारी थी। हम अपने गर्ममिजाज आंदोलनकारी भाई नंदन सिंह रावत जी की ओर देख ही रहे थे कि हमारी उम्मीद के विपरीत वो बोले कि घबराहट और परेशानी में इंसान ना जाने क्या कुछ नहीं बोल जाता है। उस ड्राइवर को समझाते हुए नंदन सिंह रावत जी ने कहा भैया पहाड़ी तो हम सभी हैं जो पहाड़ के इलाकों में रहते हैं लेकिन हो सके तो आइंदा से हमें उत्तराखंडी कहना क्योंकि अलग पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के सपने को लेकर ही तो जी रहे हैं हम पहाड़ी लोग।
आज नंदन सिंह रावत जी चिरनिंद्रा लीन हो गए हैं। जब भी कभी दिल्ली-एनसीआर में प्रवासी उत्तराखंडियों के सामाजिक,सांस्कृतिक, राजनैतिक और साहित्यक सरोकारों की बात चलेगी तो मेरे भाई, मेरे दोस्त नंदन सिंह रावत आपकी कमी हमेशा खलेगी। उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी और समाजसेवी नंदन सिंह रावत जी को कोटि-कोटि नमन।
प्रदीप वेदवाल
(लेखक उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी,वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)