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उत्तराखण्ड की वीरांगना तीलू रौतेली के जन्मदिवस पर शत शत नमन

तीलू रौतेली: उत्तराखण्ड  के पौड़ी गढ़वाल की एक ऐसी वीरांगना, क्षत्राणी जो मात्र 15 वर्ष की आयु में रणभूमि में कूद पड़ी थी और जिसने 15 -22 वर्ष की आयु में अपने से कई ताकतवर शाशकों से सात युद्ध लड़े और सभी में फतह हासिल की। आज यानि 8 अगस्त को उत्तराखण्ड की वीरबाला तीलू रौतेली का 357वाँ जन्म दिवस है। तीलू रौतेली का जन्म 8 अगस्त 1661 में पौड़ी गढ़वाल के गुराड गाँव में भूपसिंह (गोर्ला) रावत के घर हुआ था। 15 वर्ष की आयु में तीलू रौतेली की सगाई ईड़ा गाँव (पट्टी मोंदाडस्यु) के भुप्पा सिंह नेगी के पुत्र के साथ हुई। इन्ही दिनों गढ़वाल में कत्यूरियों के लगातार हमले हो रहे थे, तीलू के पिता भूपसिंह गुराड चौंदकोट के थोकदार थे। इन हमलों में कत्यूरों के खिलाफ लड़ते-लड़ते तीलू के पिता ने युद्ध भूमि में अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। उनके प्रतिशोध में तीलू के मंगेतर और दोनों भाई (भग्तू और पर्थ्वा) भी कत्यूरों के साथ लड़ते लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए।

कहा जाता है कि कुछ ही दिनों में कांडा गाँव में कौथीग (मेला) लगा और बालिका तीलू इन सभी घटनाओं से अंजान कौथीग में जाने की जिद करने लगी तो उसकी माँ ने रोते हुये ताना मारा कि जा पहले अपने भाईयों और पिता की मौत का प्रतिशोध ले फिर जाना कौथीग। बस यही बात बालिका तीलू के कोमल मन में चुभ गई और उसने कौथीग जाने का ध्यान तो छोड़ ही दिया और प्रतिशोध की धुन पकड़ ली। उसने अपनी सहेलियों के साथ मिलकर एक सेना बनानी शुरू कर दी और पुरानी बिखरी हुई सेना को एकत्र करना भी शुरू कर दिया। प्रतिशोध की ज्वाला ने तीलू को घायल शेरनी बना दिया था, हथियारों से लैस सैनिकों तथा “बिंदुली” नाम की घोड़ी और अपनी दो प्रमुख सहेलियों बेल्लु और देवली को साथ लेकर युद्धभूमि के लिए प्रस्थान किया।

सबसे पहले तीलू रौतेली ने खैरागढ़ (वर्तमान कालागढ़ के समीप) को कत्यूरों से मुक्त करवाया, उसके बाद उमटागढ़ी पर धावा बोला, फिर वह अपने सैन्य दल के साथ “सल्ड महादेव” पंहुची और उसे भी शत्रु सेना के चंगुल से मुक्त कराया। चौखुटिया तक गढ़ राज्य की सीमा निर्धारित कर देने के बाद तीलू अपने सैन्य दल के साथ देघाट वापस आयी। कालिंका खाल में तीलू का शत्रु से घमासान संग्राम हुआ, सराईखेत में कत्यूरों को परास्त करके तीलू ने अपने पिता के बलिदान का बदला लिया, इसी जगह पर तीलू की घोड़ी “बिंदुली” भी शत्रु दल के वारों से घायल होकर तीलू का साथ छोड़ गई।

शत्रु को पराजय का स्वाद चखाने के बाद जब तीलू रौतेली लौट रही थी तो जल श्रोत को देखकर उसका मन कुछ विश्राम करने को हुआ, कांडा गाँव के ठीक नीचे पूर्वी नयार नदी में पानी पीते समय उसने अपनी तलवार नीचे रख दी और जैसे ही वह पानी पीने के लिए झुकी, उधर ही छुपे हुये पराजय से अपमानित रामू रजवार नामक एक कत्यूर सैनिक ने तीलू की तलवार उठाकर उस पर हमला कर दिया। निहत्थी तीलू पर पीछे से छुपकर किया वार प्राणघातक साबित हुआ और इस तरह मात्र 21-22 वर्ष की अल्पायु में ही उत्तराखण्ड की वीरांगना तीलू रौतेली सदा सदा के लिए अमर हो गई।

उनकी याद में आज भी कांडा ग्राम व बीरोंखाल क्षेत्र के निवासी हर वर्ष कौथीग (मेला) आयोजित करते हैं और ढ़ोल-दमाऊ तथा निशाण के साथ तीलू रौतेली की प्रतिमा का पूजन किया जाता है। तीलू रौतेली की स्मृति में गढ़वाल मंडल के कई गाँव में थड़िया गीत गाये जाते हैं। उत्तराखण्ड सरकार भी वीरांगना तीलू रौतेली के जन्म दिन पर राज्य में कई प्रतियोगिताये आयोजित करती है और पुरस्कार वितरित करती है। वीरांगना तीलू रौतेली के पराक्रम की गाथाओं को झांसी की रानी जैसा स्वरूप देकर बीरोंखाल,  उनके पैत्रिक गॉव गुराड़ व जनदा देवी में उनकी भव्य मूर्तियों का स्थापित हैं। तीलू रौतेली की 357वें जन्मदिन पर उत्तराखण्ड वासियों को हार्दिक शुभकामनायें।

साभार:इंटरनेट