करवा चौथ (Karva Chauth) : भारतीय संस्कृति अपने आप में बेजोड़ व अनुपम है। इसकी अपनी अलग पहचान है। यहाँ नारी को अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखा गया है। मनुस्मृति में कहा गया है “यत्र नार्येस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”, अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती, वहाँ देवता निवास करते हैं। हिन्दी साहित्य के छायावादी काव्य धारा के आधार भूत स्तम्भ जयशकर प्रसाद ने कामायनी महाकाव्य में यह स्पष्ट कहा है नर से बढकर नारी, पुरुष की प्रगति में नारी की विशेष भूमिका रहती है। यही कारण है कि नारायण के साथ लक्ष्मी, शिव के साथ पार्वती, राम के साथ सीता और कृष्ण के साथ राधा की आराधना नारी शक्ति के प्रभाव को उजागर करती है।
करवा चौथ को सुहागिनों का त्योहार भी कहा जाता है। इस दिन सुहागिनें अपने पति की लंबी उम्र के लिए पूरे दिन उपवास रखती हैं। और शाम को पूजन करने के बाद चांद और पति को छलनी में से देखने के बाद जल ग्रहण कर उपवास पूरा करती हैं।
कैसे शुरू हुई करवा चौथ व्रत की परंपरा
करवा चौथ की परमंपरा कहाँ से शुरू हुई और सबसे पहले किसने इस वर्त को रखा था इसके बारे कई पौराणिक कथाएं प्रचलित है। करवा चौथ मनाने के पीछे एक पौराणिक कथा यह भी है जिसके अनुसार जब सत्यवान की आत्मा को लेने के लिए यमराज आए तो पतिव्रता सावित्री ने उनसे अपने पति सत्यवान के प्राणों की भीख मांगी और अपने सुहाग को न ले जाने के लिए निवेदन किया। यमराज के न मानने पर सावित्री ने अन्न-जल का त्याग दिया। और वह अपने पति के शरीर के पास विलाप करने लगीं। पतिव्रता स्त्री के इस विलाप से यमराज विचलित हो गए और उन्होंने सावित्री से कहा कि अपने पति सत्यवान के जीवन के अतिरिक्त वह कोई और वर मांग ले। तब सावित्री ने यमराज से कहा कि आप मुझे कई संतानों की मां बनने का वर दें, जिसे यमराज ने हां कह दिया। पतिव्रता स्त्री होने के नाते सत्यवान के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष के बारे में सोचना भी सावित्री के लिए संभव नहीं था। अंत में अपने वचन में बंधने के कारण एक पतिव्रता स्त्री के सुहाग को यमराज लेकर नहीं जा सके और सत्यवान के जीवन को सावित्री को सौंप दिया। कहा जाता है कि तब से स्त्रियां अन्न-जल का त्यागकर अपने पति की दीर्घायु की कामना करते हुए करवाचौथ का व्रत रखती हैं।
वैसे पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सबसे पहले यह व्रत शक्ति स्वरूपा देवी पार्वती ने भोलेनाथ के लिए रखा था। इसी व्रत से उन्हें अखंड सौभाग्य की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए सुहागिनें अपने पतियों की लंबी उम्र की कामना से यह व्रत करती हैं और देवी पार्वती और भगवान शिव की पूजा करती हैं। पौराणिक कथा के अनुसार एक बार देवताओं और राक्षसों के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ा था। लाख उपायों के बावजूद भी देवताओं को सफलता नहीं मिल पा रही थी और दानव थे कि वह हावी हुए जा रहे थे। तभी ब्रह्मदेव ने सभी देवताओं की पत्नियों को करवा चौथ का व्रत करने को कहा। उन्होंने बताया कि इस व्रत को करने से उनके पति दानवों से यह युद्ध जीत जाएंगे। इसके बाद कार्तिक माह की चतुर्थी के दिन सभी ने व्रत किया और अपने पतियों के लिए युद्ध में सफलता की कामना की। कहा जाता है कि तब से करवा चौथ का व्रत रखने की परंपरा शुरू हुई।
एक पौराणिक कथा यह भी है कि प्राचीन समय में करवा नाम की एक पतिव्रता स्त्री थी। एक बार उसका पति नदी में स्नान करने गया था। उसी समय एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। इस पर उसने मदद के लिए करवा को पुकारा। तब करवा ने अपनी सतीत्व के प्रताप से मगरमच्छ को कच्चे धागे से बांध दिया और यमराज के पास पहुंची। करवा ने यमराज से पति के प्राण बचाने और मगर को मृत्युदंड देने की प्रार्थना की। इसके बाद इस पर यमराज ने कहा कि मगरमच्छ की आयु अभी शेष है, समय से पहले उसे मृत्यु नहीं दे सकता। तभी करवा ने यमराज से कहा कि अगर उन्होंने उसके पति को चिरायु होने का वरदान नहीं दिया तो वह अपने तपोबल से उन्हें नष्ट होने का शाप दे देगी। इसके बाद यमराज ने करवा के पति को जीवनदान दे दिया और मगरमच्छ को मृत्युदंड।
छलनी में चाँद और पति का चेहरा देखकर यह व्रत पूरा किया जाता है
करवा चौथ के व्रत में छलनी का खास महत्व है। इस दिन पूजा की थाली में सुहागिन महिलाएं पूजा की सामग्री के साथ छलनी भी रखती है। करवा चौथ की रात को सुहागिन महिलाएं चाँद और पति को छलनी में से देखकर अपना व्रत पूरा करती हैं। चाँद निकलने के बाद महिलाएं छलनी में पहले दीपक रख चांद को देखती हैं और फिर अपने पति को देखती हैं। इसके बाद पति अपनी पत्नी को पानी पिलाकर व्रत पूरा करवाते हैं। छलनी में चाँद और पति का चेहरा देखकर यह व्रत पूरा करने के पीछे की कहानी यह है कि हिंदू मान्यताओं के अनुसार चंद्रमा को भगवान ब्रह्मा का रूप माना जाता है और चांद को लंबी आयु का वरदान मिला हुआ है। चांद में सुंदरता, शीतलता, प्रेम, प्रसिद्धि और लंबी आयु जैसे गुण पाए जाते हैं। इसीलिए सभी महिलाएं चांद को देखकर ये कामना करती हैं कि ये सभी गुण उनके पति में आ जाएं।
करवा चौथ पूजन का शुभ मुहूर्त
करवा चौथ का त्यौहार प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को शुभ महूर्त पर मनाया जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस वर्ष इस ब्रत का शुभ मुहूर्त 4 नवंबर को शाम 5:29 बजे से 6:48 तक रहेगा। इस दिन चन्द्रोदय रात 8:16 पर रहेगा। वैसे तो करवा चौथ का त्यौहार मुख्यतः उत्तर भारत में खास तौर पर पंजाब में मनाया जाता है। परन्तु पिछले कुछ वर्षों से करवाचौथ का त्योहार का भी ग्लोबलाइजेशन हो गया है और अब करवा चौथ देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी मनाया जाने लगा है।
करवा चौथ पूजन की विधि
महिलाओं को चाहिए इस दिन करवाचौथ का कैलेन्डर अपने पूजा स्थान में रखे। अपने श्रृंगार की वस्तुओं को भी पूजा स्थान में रखें। गणेश भगवान, माँ काली, शिव, पार्वती, कार्तिकेय की बड़ी तन्मयता से भक्ति पूर्वक पूजा अर्चना करें। परिवार की सुख शान्ति के लिए 21 बार इस मन्त्र का जप करें। जप करते समय स्वच्छता का ध्यान जरूर रखेँ। मन्त्र इस प्रकार से है मम सुख सौभाग्य पुत्र पौत्रादि सुस्थिर श्री प्राप्तये कर्क चर्तुर्थी ब्रत महँ करिश्ये। पूजा करने के बाद अपने आप को दुल्हन की तरह सुन्दर वस्त्र धारण कर स्वयं को सुसज्जित करे। पूजा के स्थान पर जल से भरा लोटा या करवे को रखे। करवे को गेहूँ से भरे। करवे के ढक्कन में चीनी रखेँ। करवे पर रोली और सुन्दर अलग-अलग तरह की आकर्षित बिन्दिया रखेँ।
पूजा में अक्षत गुड और तरह-तरह के पकवान का भोग लगाये। पूजा करने के बाद गेहूँ के 13 दाने हाथ में रखकर सुयोग्य आचार्य से कथा का वाचन करायेँ। कथा का श्रवण के समय माँ काली का ध्यान करेँ। अखण्ड सौभाग्य के लिए सास का चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेँ।
इसके बाद पूजा में रखी सामग्री चन्द्रमा को अर्पित करेँ। चन्द्रमा के दर्शन करके अपने सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए प्रार्थना करें। जननी से पति के दर्शन करेँ। सास को उपहार देने के बाद ही उपवास तोडे। सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए पति की भी विशेष जिम्मेदारी बनती है। उन्हें इस ब्रत में अपनी पत्नी को भरपूर सहयोग देने चाहिए।
इस दिन सात्विकता का विशेष ध्यान रखेँ। मन को चंचल न होने दें। अपनी पुरानी कमियो को उजागर होने न देँ। पूर्ण रूप से सुखद जीवन यापन के लिए इस दिन संकल्प लेँ। नियमानुसार उपवास रखने से जीवन में सुखद स्थितियाँ आनी शुरु हो जाती हैं। चारों ओर सुगन्ध मय वातावरण बनना शुरू हो जाता है।
लेखक : राज्यपाल पुरस्कार से सम्मानित, हिन्दी अध्यापक अखिलेश चन्द्र चमोला