मनुष्य के जीवन में गुरु का विशेष महत्व है। गुरु हमारे अवगुणों को दूर करता है। गुरु के मार्ग दर्शन के बिना हम आदर्श जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं। गुरु का मतलब केवल स्कूल में पढ़ाने वाला अध्यापक ही नहीं होता है। गुरु का असली मतलब मार्ग दर्शक होता है। कोई भी मनुष्य जो आपका किसी भी चीज में मार्गदर्शन करता है, वही आपके लिए गुरु है। जीवन में माता पिता से अधिक महत्व गुरु का होता है। माता पिता जन्म देते हैं। परन्तु गुरु से ही जीवन का सच्चा मार्ग मिलता है। इस कारण गुरु को जनक भी कहा गया है। गुरु दो शब्दों के योग से बना हुआ है। गु और रू।गु का अर्थ होता है अँधकार, रू का अर्थ होता है प्रकाश। अज्ञानता को नष्ट करने वाला प्रकाश रूपी परम तत्व को गुरु कहा गया है। शास्त्रों में गुरु की महिमा इस तरह से बताई गई है, “गुरु ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुदेव महेश्वर:, गुरु साक्षात्परब्रह्म तस्मैश्री गुरुवे नम:” अर्थात गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं।
क्यों मनाया जाता है गुरु पूर्णिमा का त्यौहार
गुरु पूर्णिमा के दिन पर अपने गुरुजनों और बड़ों का आशीर्वाद लिया जाता है। गुरु पूर्णिमा पर गुरु का पूजन करने की परंपरा है। इस साल गुरु पूर्णिमा आज यानी 5 जुलाई को है। इस दिन वेदों, पुराणों तथा हिन्दुओं के सबसे बड़े धार्मिक ग्रन्थ महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास जी का जन्म हुआ था। महर्षि वेद व्सास की जयंती पर इस पर्व को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि पर गुरु पूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन विधिवत रूप से गुरु पूजन किया जाता है। इसको व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं।
गुरु का जीवन में विशेष महत्व होता है। गुरु ही हमारे दुर्गुणों को दूर रखने की क्षमता रखता है। जिस प्रकार हम अंधेरे में किसी वस्तु को पहचान नहीं पाते हैं। उसी प्रकार बिना गुरु के जीवन में अन्धकार छाया हुआ रहता है। बिना गुरु के जीवन का कोई महत्व नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु के रूप में अर्जुन को यही सन्देश दिया था कि सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणागत हो जाना चाहिए। वे उसके सम्पूर्ण पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
गुरु के ध्यान करने मात्र से मन मे औलोकिक प्रसन्नता आ जाती है। धैर्य और शांति का भाव जागृत हो जाता है। गुरु के सम्पूर्ण रूप में परम तत्व का रूप समाया हुआ रहता है। गुरु का आभा मंडल तेजोमय प्रकाश से चमकता हुआ दिखाई देता है। गुरु के तेजोमय किरणों से ही शिष्य का कल्याण होता है। सबसे बडा मन्दिर तीर्थ गुरु ही है। जिनकी कृपा से सभी फलों की प्राप्ति सुगमता से हो जाती है। सच्चे शिष्य के लिए गुरु का निवास स्थल ही तीर्थ है। गुरु के चरणों का चरणामृत ही गंगा जल है। इसी आधार पर संत समाज सुधारक कबीर दास जी ने कहा है ‘तीरथ गये तो एक फल, सन्त मिले फल चार, सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर बिचार’, सीखने की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है। गुरु के ही दिशा निर्देशन में हम किसी विषय को अच्छी तरह से सीख सकते हैं। अलग-अलग विषयों को सीखने के लिए अलग-अलग मार्ग दर्शकों की आवश्यकता होती है। ड्राइवर बनने के लिए ड्राइवर गुरु, सिलाई सीखने के लिए सिलाई गुरु, डॉ. बनने के लिए डॉ. गुरु, शिक्षक बनने के लिए शिक्षक गुरु की जरूरत होती है। बिना गुरु के हम कितना भी प्रयास करें, लेकिन किसी भी कला में सिद्धहस्त सफलता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। गुरु हमेशा अपने शिष्य को आगे देखना चाहता है। गुरु कुम्हार के समान है और शिष्य मिट्ठी के बर्तन के समान है। जैसे कुम्हार घडे और बर्तन को सुन्दर व सही आकार प्रदान करता है। उसे प्रगति की दिशा देता है। वैसे गुरु शिष्य का निर्माण करता है। गुरु का अनुशासन कठोरता या डांट उसी प्रकार से हितकारी है। जैसे-कुम्हार घडे की विकृति को दूर करने के लिए बाहर से चोट करता है, ठोकता पीटता है। किन्तु भीतर से दूसरे हाथ का सहारा देकर रखता है। इस प्रकार से गुरु शिष्य का निर्माण करता है।
गुरु और शिष्य में बडा ही घनिष्ठ संबंध है। शास्त्र कारों द्वारा कहा गया है कि-दूध के बिना गाय,फूल के बिना लता, चरित्र के बिना पत्नी, कमल के बिना जल, शान्ति के बिना विद्या और लोगों के बिना नगर शोभा नहीं देते हैं, वैसे गुरु के बिना शिष्य शोभा नहीं देता है। सच्चे गुरु की कृपा से अज्ञानता समाप्त हो जाती है। इसी आधार पर संत समाज सुधारक कबीर दास जी ने कहा है कि-गुरु मिलते हैं तो हृदय ज्ञान के प्रकाश से भर जाता है। अतः गुरु को कभी भी नहीं भूलना चाहिए। भगवान की कृपा से ही सद्गुरु की प्राप्ति होती है। गुरु ही देश के भविष्य निर्माताओं का निर्माण करता है। विद्यार्थियो के मन मस्तिष्क को ज्ञान रूपी प्रकाश पुंज अभिसिन्चित करता है। आदर्श राष्ट्र के निर्माण में गुरु की सबसे विशिष्ट भूमिका रहती है। गुरु मनोवैज्ञानिक पहलू को अपना कर अपने शिष्यों को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है। गुरु अपने आप को एक कृषक के रूप मे देखता है। विद्यार्थियो का आकलन फसल के रूप में करता है। लहलहाती फसल सभी को सुन्दर दिखाई देती है। इसकी सुन्दरता सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है। इस प्रकार ज्ञान गंगा से युक्त शिष्य समाज और राष्ट्र में अपनी सुगन्ध फैला देते हैं।
लेखक: अखिलेश चन्द्र चमोला/कला निष्णात/स्वर्ण पदक प्राप्त, राज्यपाल पुरस्कार तथा अनेकों राष्ट्रीय सम्मानोपाधियो से सम्मानित हिन्दी अध्यापक तथा नशा उन्मूलन प्रभारी शिक्षा विभाग जनपद पौडी गढवाल।