भगवान बदरीनाथ के कपाट 17 नवम्बर को जबकि केदारनाथ और यमुनोत्री के 3 नवम्बर और गंगोत्री के 2 नवम्बर को बंद होने जा रहे हैं। हालांकि सरकारें अंतिम दिन तक श्रद्धालुओं की भीड़ को लेकर उत्साहित रहती हैं, लेकिन क्या वे कपाटबंदी और इसके बाद के पहलुओं पर किसी तरह की समीक्षा या चिंतन बैठकें करती हैं? बेशक करती ही होंगी, पर क्या ये बैठकें वैसी गंभीरता ओढ़े रखती हैं, जितनी कपाट खुलने से पहले अप्रैल माह की तैयारी बैठकें! यदि ऐसा होता तो साल-दर-साल बढ़ते जा रहे विभिन्न दबाओं के कारण चारधाम यात्रा की गरिमा खंडित न हो रही होती और यात्रा मार्ग पर अफरा-तफरी और कुप्रबंधन की खबरें तूल न ले पातीं।
हां, यह चिन्तन जरूर होता रहा है कि क्या शीतकाल में भी चारधाम यात्रा को बदले हुए स्वरूप में गतिमान रखा जा सकता है! इस दिशा में एक बड़ी कोशिश 2015 में तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने की थी। उन्होंने शीतकालीन यात्रा के लिए ऋषिकेश में रजिस्ट्रेशन कार्यालय तक खोला था लेकिन सारी योजना फेल हो गई। इक्का-दुक्का रजिस्ट्रेशनों के अलावा श्रद्धालुओं की ओर से कोई उत्साही प्रतिक्रिया सामने नहीं आई। असल में सरकारों के उत्साही योजनाकार शीतकाल में यात्रा जारी रखने के सपने तो दिखाते रहते हैं मगर इसके किसी संरचनात्मक ढांचे का ब्लूप्रिंट सामने नहीं रखते। उन्हें यह समझने की आवश्यकता है कि उत्तराखंड की चारधाम यात्रा पर धीरे-धीरे पर्यटन उद्योग से जुड़ी बुराइयों के लक्षण चस्पां होते जा रहे हैं। ऐसे में यदि हिमालयी क्षेत्र में तीर्थाटन के मद्देनजर सधी तैयारी और सावधानी न बरती गई तो आने वाला समय चुनौतियों भरा होगा। उत्तराखंड की चारधाम यात्रा देश की सांस्कृतिक धरोहर है और धार्मिक मान्यताओं, आस्थाओं, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और प्राकृतिक संसाधनों के सरंक्षण की भी वारिस है। मंदिरों के कपाट खुलने और बंद होने का नियत समय यहां की इकोलॉजी से जुड़ा हुआ है। कपाट बंद होने पर भगवान भी नीचे आ जाते हैं ताकि हिमशिखर मानवीय दखलंदाजी से दूर रहें और अधिकाधिक बर्फ से ढकते चले जाएं।
इन पहलुओं के मद्देनजर कुछ योजनाओं पर काम जरूर किया जा सकता है। उन देवालयों और उनके माहात्म्य को प्रचारित कर तीर्थयात्रियों को आकर्षित किया जा सकता है, जहां देव अपने-अपने विग्रही स्वरूप के साथ शीतकालीन प्रवास करते हैं। देवों के इन शीतकालीन प्रवासों की अनूठी परंपराएं देशवासियों के कौतूहल का विषय रही हैं। लोग यमुनोत्री की ‘शीतकालीन सीट’ खरसाली के दिव्य मंदिर की चमक को जरूर आत्मसात करना चाहेंगे जो पत्थर लकड़ी और उड़द दल के मसाले से बना है। इसी प्रकार गंगोत्री का शीतकालीन प्रवास मुखबा गांव अपनी अलौकिकता और लोकजीवन के एक अलग तरह के अनुभवों से सामना कराता है। मुखबा और आसपास बसी भागीरथी घाटी की महिलाओं के मन में मां गंगा का कैसा अनूठा रूप बसता है, यह अनुभव यहीं आकर प्राप्त किया जा सकता है। भगवान बदरीनारायण के विग्रही स्वरूपों से जुड़े प्रतीकों में पाण्डुकेश्वर और नृसिंह मंदिर और केदारनाथ के ऊखीमठ-गुप्तकाशी जैसे शीतकालीन तीर्थों की महिमा निराली है।
इन स्थलों की शीतकालीन यात्राओं को साहसिक पर्यटन से जोड़कर कई प्रकार के दीर्घकालीन हित साधे जा सकते हैं। प्रयोग के तौर पर वैकल्पिक मार्गों का प्रचार-प्रसार कर उनके उपयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है। ये मार्ग उस दीर्घकालीन योजना को सामने रख विकसित किए जा सकते हैं, जिनका इस्तेमाल उस सूरत में भी संभव हो सकेगा, जब यात्रा सीजन अपने चरम पर होता है और अनेकानेक कारणों से मुख्यमार्ग पर यात्रा के संचालन में कठिनाई पेश आती है। ऐसे में आधारभूत संरचनाओं को दुरुस्त कर यात्रा के एक विकेंद्रित ढांचे को तवज्जो दी जानी चाहिए। इसके लिए पहले से उपलब्ध वैकल्पिक मार्गों का विवेकपूर्ण उपयोग करना होगा। उदाहरण के लिए हरिद्वार-ऋशिकेश के अलावा यात्रा का एक वैकल्पिक मार्ग कोटद्वार-पौड़ी या रामनगर-पौडी से भी खोला जा सकता है। पौड़ी से कर्णप्रयाग के लिए सीधी सड़क है। यह घने जंगलों की ठंडी तासीर लिए हुए बहुत शानदार मार्ग है। इस मार्ग को चुनने के लिए इतना भर करना होगा कि सड़क दुरुस्त की जाए और सरकार की प्रचार सामग्री में यह जिक्र हो कि तीर्थयात्री चाहें तो इस मार्ग से भी बदरी-केदार की यात्रा कर सकते हैं। पौड़ी-कर्णप्रयाग मार्ग सीधे देवप्रयाग से जुड़ा है और हरिद्वार-ऋषिकेश से आने वाले यात्री इसे चुन सकते हैं।
सरकारी व गैरसरकारी स्तर पर यह कोशिश होती आई है कि चारधाम यात्रा खासकर बदरी-केदार के प्राचीन पैदल रास्तों की शिनाख्त की जाए। दो साल पहले उत्तराखंड पर्यटन विकास बोर्ड के सहयोग से एक ट्रैकिंग दल ने 1200 किलोमीटर की यात्रा की और सरकार को रिपोर्ट सौंपी, पर बात जहां की तहां रुक गई। कुछ पारंपरिक मार्ग जरूर ऐसे हैं जिनकी खोज के लिए प्रयास की आवश्यकता नहीं हैं। ये आज भी छोटे पैमाने पर ही सही, श्रद्धालुओं के लिए करीब 50 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर केदारनाथ पहुंचने का साधन हैं। उदाहरण के लिए बूढ़ा केदार से पंवाली कांठा और तिरयुगी नारायण। ये मार्ग तीर्थयात्रा के साथ-साथ प्रकृति के सहचर्य का भी साधन हैं। इन्हें अपनी प्रचार सामग्री में शामिल कर सरकारें इस क्षेत्र में सौहार्दपूर्ण पथारोही पर्यटन को बढ़ावा दे सकती हैं। साथ ही उन ग्रामांचलों की किस्मत संवार सकती है जो पलायन और खेती-किसानी के बज्राघात से जूझ रहे हैं।
यात्रा सीजन के इस बार के कड़वे अनुभवों को देखते हुए तीर्थों की कपाटबंदी का यह समय इस बात के चिन्तन मनन का है कि तीर्थ के रूप में गंगा-यमुना के उद्गमों और बदरी-केदार को पूरा देश बहुत श्रद्धा और सम्मान के साथ देखता है। ऐसे में संवेदनशील उच्च हिमालय का संसर्ग और यात्रा परंपरा की प्राचीनता के कारण यहां तीर्थाटन और पर्यटन के बीच एक विभाजक रेखा कैसे बरकरार रहे! सदियों से लोग देवदर्शन के अलावा देव विग्रहों की प्रवास डोलियों के संसर्ग और प्रसंग से धन्य होते आए हैं। उनके लिए इन धामों की दिव्यता और शुचिता का अनुभव ही तीर्थाटन का वास्तविक आनंद है।