श्रीनगर: ‘भरतु की ब्वारी’ के सशक्त पात्र को प्रतीक बनाते हुए शहर की ओर पलायन, अन्धानुकरण, शहरी जीवन शैली और पारम्परिक जीवन शैली के बीच की स्थिति पर सशक्त व्यंग्य लघु कथाओं से सोशियल मीडिया पर अपनी जगह बनाने वाले, सामाजिक सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध नवल खाली एक बार फिर स्वेच्छिक शिक्षक मंच एंव अजीम प्रेमजी फाउडेशन श्रीनगर द्वारा सम्मानित होने पर सोशल मीडिया में चर्चाओ में है… भरतू की ब्वारी शीर्षक के साथ धूम मचाने वाले व्यंग्य शैली के युवा कथा रचनाकार नवल खाली हैं, जो अपने रचना संसार के साथ विभिन्न क्षेत्रों में घुमक्कड़ी से निकले कथा सागर के अनुभवों को हम सभी के साथ साझा करेंगे।
किसी लेखक, कवि, साहित्यकार का लेखन किसी न किसी प्रेरणा से उपजा होता है, जो उसके वातावरण, उसको मिले मार्गदर्शन या कहें उसके द्वारा प्राप्त मार्गदर्शन से अभिभूत होता है। इसी तरह, व्यंग्य लेखन भी उस दौर की विदू्रपताओं, विसंगतियों, विषमताओं और पाखंड को शब्द शक्ति की व्यंजना के प्रभाव से सार्वजनिक करने के लिए लेखक का उद्वेलित प्रवाह होता है। निःसंदेह भरतू की ब्वारी नवल खाली के मन में उत्तराखण्ड के हालातों, बेरोजगार युवाओं की स्थितियों, उजड़ते गावों, अपने संसाधनों को छोड़ दूसरे शहरों में पाबंदी के साथ जीने के लिए मजबूर युवक-युवतियों के मतिभ्रम को रास्ता देने की कोशिश भर है।
चमोली जिले के पोखरी विकासखण्ड के खाल गाँव में जन्मे नवल खाली का बचपन कुछ समय लखनऊ में बीता, जब उनके पिता वहाँ पर एक निजी विद्यालय में शिक्षण का कार्य करते थे, लेकिन फिर किसी कारणवश वे गाँव लौट आए। तीसरी कक्षा से नवल खाली ने अपने गाँव के स्कूल में ही पढ़ाई शुरू की। एक मनोहारी गाँव, घने जंगल, हिमाच्छादित पहाड़, गाड़-गदेरे हर पहाड़ी बच्चे की ही तरह उनके जीवन का भी हिस्सा बने, तो पहाड़ के भूगोल की विषम परिस्थितियों को भी उन्होंने बहुत करीब से देखा। स्कूल की पढ़ाई से लेकर, मवेशियों के लिए चारे की व्यवस्था, पानी लाने की परेशानी को उन्होंने अपने परिवारजनों के साथ खूब जिया।
उच्च शिक्षित परिवार के इस बालक ने भी इंटरमीडिएट उत्तीर्ण करने के बाद उत्तराखण्ड के दूरस्थ गाँव में रहने वाले हर बच्चे की ही तरह अपना घर छोड़कर आगे की पढ़ाई की. देहरादून में जब वे अंग्रेजी परास्नातक के विद्यार्थी थे, तो उनके परिवार को एक बड़े सदमे से गुजरना पड़ा। परिवार के मुखिया उनके पिता जी, जो एक निजी विद्यालय के प्रधानाचार्य थे, की हार्ट अटैक से मौत हो गई। चूंकि नवल घर के इकलौते पुत्र थे और पत्रकारिता के क्षेत्र में जाना चुनौतीपूर्ण कार्य था, जिसका सपना वे सॅंजोए बैठे थे। मुख्य रूप से इन स्थितियों में आर्थिक हालातों को मजबूत करने के लिए लेखन या पत्रकारिता की राह चुनना एक कठिन निर्णय था, लेकिन ऐसे वक्त में उनकी माताजी ने धैर्य से काम लिया और नवल को इस बात की छूट मिली कि वे पूर्व की ही भांति अपनी पढ़ाई पूर्ण कर अपने मन-मुताबिक क्षेत्र को अपने करियर के लिए चुनें। यह दौर उत्तराखण्ड में भी नए-नए टी.वी चैनल्स के आने का दौर था, जो नए युवाओं को अपने चैनलों में ले तो रहे थे, लेकिन उनकी आर्थिकी को मजबूत नहीं कर पा रहे थे। अपनी मंशा के मुताबिक नवल ने परास्नातक करने के बाद दो टीवी चैनलों में काम किया। इसके बाद दो वर्षों तक एक पत्रिका में भी काम किया और फिर अमर उजाला के मार्केटिंग सेक्शन में कार्य की शुरूआत अपने गृह जनपद रुद्रप्रयाग से की। अपनी मेहनत और निष्ठा के बूते आज वे इसी संस्थान में मीडिया सॉल्यूशन गढ़वाल हैड के पद पर कार्यरत हैं।
मीडिया सॉल्यूशन के पद तक पहुँचने में नवल खाली ने अपना माद्दा दिखाया, लेकिन दिल की ख्वाहिश दिल में ही हिलोरे मारने लगी। अमर उजाला में काम करते हुए नवल ने ऐसे दो खौफनाक मंजर अपने सामने देखे कि वे भीतर तक हिल गए। पहली वर्ष 2011-12 में आई उखीमठ की त्रासदी और दूसरी 2013 में आई केदारनाथ की आपदा। इन दोनों आपदाओं के दौरान नवल भी क्रमशः उखीमठ एवं गौरीकुंड में मौजूद थे। इसके साथ ही उन्होंने अपनी जिजीविषा के अनुरूप उत्तराखण्ड के विभिन्न हिस्सों में घुमक्कड़ी की। उत्तराखण्ड के अप्रतिम सौंदर्य पर वे अभिभूत रहे, लेकिन यहाँ निर्जन हो रहे गाँवों और इससे उत्पन्न समस्याओं से उतने ही विचलित भी। इसके लिए उन्होंने इसे लिखना शुरू किया। पहले तो इसके पात्र धर्मू, हेमू और इसी तरह के उत्तराखण्डी नाम रहे, लेकिन फिर उन्होंने भरतू की ब्वारी शीर्षक के साथ पलायन, रोजगार और रिवर्स माइग्रेशन को जोड़कर लिखना शुरू किया। एक ही शीर्षक पर दनादन आती रही नवल की लघु कथाओं ने सोशल मीडिया पर धूम मचा दी। अब तक नवल भरतू की ब्वारी के 100 से अधिक भाग लिख चुके हैं, जिन्हें पाठकों ने खूब सराहा है।
महेश गिरि