श्रीनगर गढ़वाल: उत्तराखंड के 52 गढ़ में एक देवलगढ़ स्थित माँ गौरा देवी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर में हर वर्ष बैशाखी के दिन एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। माँ भगवती गौरादेवी सुमाड़ी के काला परिवार की कुलदेवी हैं। बैसाखी के पावन पर्व पर हर वर्ष माँ गौरा भगवती रीतिनुसार 4 महीने मायके में रहने के बाद ससुराल आती है। 13 अप्रैल को रात्रि जागरण किया जाता है। 14 अप्रैल को माँ भगवती गर्भगृह से बाहर आकर हिन्डोंला खेलती हैं। देवलगढ मे माँ गौरा देवी के दर्शन के लिए दूर-दूर से हजारों भक्त दूर-दूर से आते हैं। माँ भगवती गौरा देवी सभी आये हुए भक्तों के रोग व्याधि, दुख, दरिद्र लेकर संतान सुख, वैभव, कीर्ति, यश व ज्ञान का आशीष देते हुए भावुक होकर नम आंखों से अपने मायके वालों और सभी भक्तों से विदाई लेकर, अपने गर्भ में थान मान हो जाती है।
बैसाखी पर्व नवरात्र के समापन पर सुमाड़ी गांव के ग्रामवासी माँ गौरा की विदाई ठीक उसी तरह से करते है जिस तरह माँ बाप अपनी बेटियों की विदाई करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माँ गौरा का मायका सुमाड़ी और ससुराल बुघाणी मना गया है। ग्रामवासी माँ के भजनों के साथ सुमाड़ी से पैदल यात्रा करते हुए बुघाणी पहुचंकर माँ गौरा के मंदिर मे विश्राम करते हैं। और पुनः जत्थे के साथ माँ गौरा के मंदिर देवलगढ के लिए प्रस्थान करते हैं। इस दौरान गाँव के सभी बच्चे-बूढ़े माता के भजनों को गाते हुए चलते है, जिससे वातावरण माँ गौरा के जै कारों से गुंजायमान रहता है। स्थानीय लोगों के अनुसार इस पर्व को ध्याणी मेले के नाम से भी माना जाता है। गाँव-गाँव से ढोल दमाऊँ के साथ जत्थे माँ गौरा के प्रांगण में पहुँचते है। बैशाखी के दिन यहाँ बड़े मेला का आयोजन होता है। इस दिन गौरा देवी को हिंडोला पर मंदिर से बाहर लाया जाता है। और माँ गौरा के प्रांगण में बुघाणी ग्राम के लोगों द्वारा जै कारों के साथ हिंडोला (झूला) झुलाया जाता है। स्थानीय गांवों के देश विदेशों में रहने वाले भक्तजन बैशाखी के दिन मेले में पहुँचकर माँ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
पहले बैसाखी मेले का भारी महत्त्व होता था। इस समय फसलें कटने का त्योहार मनाया जाता है तथा पुराने जमाने में लोग गेहूं की नई फसल से पिसे आटे से सबसे पहले रोटियां बनाकर मंदिर में चढ़ाते थे। इस मेले में हजारों की भीड़ होती थी। परन्तु आज नौकरी की तलाश में इतने लोग यहां से पलायन कर गये हैं, जिस कारण कि मेले का महत्त्व बहुत काम हो गया है। फिर भी यहां मेले में आने वाले दुकानदारों द्वारा परंपरागत पापड़ी एवं जलेबियां बनायी जाती है, जिसके लिये देवलगढ़ प्रसिद्ध रहा है। राज राजेश्वरी गढ़वाल के राजवंश की कुलदेवी थी। देवलगढ़ में माँ राज राजेश्वरी मंदिर सबसे अधिक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मंदिर है। इसका निर्माण 14वीं शताब्दी के राजा अजयपाल द्वारा करवाया गया था। गढ़वाली शैली में बने इस मंदिर में तीन मंजिलें हैं। तीसरी मंजिल के दाहिने कक्ष में वास्तविक मंदिर है। यहां देवी की विभिन्न मुद्राओं में प्रतिमायें हैं। इनमें राज-राजेश्वरी कि स्वर्ण प्रतिमा सबसे सुन्दर है।
सुमाडी, भटोली, सुरालगांव आदि आसपास के गांवो से ढोल दमाऊँ के साथ जत्थे माँ के दरबार में पहुँचने वालों के साथ देवी प्रसाद, मनोज काला, मुकेश काला, सुधीर बहुगुणा, मंगलसिंह, विपिन चमोली, विमल काला, मेदनीघर कगडियाल, सुनील, गजेन्द्र, महावीर बहुगुणा, शंकर सिहं, केशव काला एवं मन्दिर समिति के अध्यक्ष एवं कार्यकारिणी शामिल थी।
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