chulha

कहने को तो ‘चूल्हा’ वह स्थान है जहां आग जलती है और खाना पकता है, परन्तु चूल्हे का भारतीय जनजीवन से गहरा संबंध है। हालाँकि घर के आंगन में अब न तो चूल्हा जगाया जाता है और न ही गाय के लिए रोटी बनती है। न ही चिड़िया दाने की आस में आंगन में उतरती है और न ही मां ड्योढ़ी में आकर बच्चों को पुकारती है जैसा कि पहले चूल्हा जलने पर हुआ करता था।

चूल्हा एकता का प्रतीक है, खुशहाली का प्रतीक है। साझा चूल्हा बताता है कि उस घर के लोग कैसे ताने-बाने से जुड़े हैं। चूल्हा जलता है, खाना पकता है, दाने की आस में रोटी-रोटी चिड़िया आने लगती हैं। घर के बच्चे थाली लेकर बैठ जाते हैं और चूल्हे को निहारते हुए अपनी बारी का इंतजार करते हैं। किसान और मजदूर चूल्हे के उठते धुंए को देखकर घरों के अंदर लौट आते हैं। चूल्हे का जलना दैनिक उत्सव सा होता है। जब तक यह सुनिश्चित रहता है कि चूल्हा जलेगा उस घर की आस बंधी रहती है। जब किसी गांव में चूल्हे रोज नहीं जलते वह गांव उजड़ने लगता है और दो जून रोटी के लिए बड़े-बूढ़े ढोरों को लेकर दूर चले जाते हैं। मेहनत करते हैं, कमाई घर भेजते हैं ताकि चूल्हा जलता रहे।

एक औरत की दिनचर्या चूल्हे से बंधी रहती है। वह सुबह उठकर चूल्हा जगाती है। दिन भर के न जाने कितने क्रियाकलाप चूल्हे से जुड़े रहते हैं। चूल्हे में रोटी भी बनती है, चोट का मलहम भी और बूढ़े बाबा का काढ़ा भी। भूले-भटके आये बटोहियों का भाग्य भी इसी से जुड़ा रहता है। एक औरत चूल्हे के चारों ओर फिरकी सी नाचती रहती है और दौड़-दौड़कर ड्योढ़ी से अपने बच्चों को पुकारती है। जब तवा उलट दिया जाता है, तो वह विश्राम का समय कहलाता है। पर यह अवधि ज्यादा नहीं होती, चूल्हा जल्दी ही जागता है और देर रात तक अपलक ताकता रहता है। वह जागता है ताकि घर के लोगों के पेट की आग बुझ सके, नयी सुबह की तैयारी हो सके और आस के साथ आयी चिड़िया भूखी न लौटे। संभवतः इसीलिए भारतीय समाज में चूल्हे का विशेष स्थान है। जगाने से पहले ‘देव स्थान’ की तरह इस चूल्हे को लीपा-पोता जाता है। राख की चुटकी से इसके राज्य की सीमाएं खींची जाती हैं। आज भी गांवों में खाना बनाने से पहले एक छोटी सी रोटी चूल्हे के लिए भी बनायी जाती है।

चूल्हा अकसर घर की बड़ी-बूढ़ी ही बनाया करती हैं। इसको बनाने की एक निश्चित कला होती है जो पीढ़ी दर पीढ़ी सफर करती है। नयी बहू इस हुनर को सीखने तक सयाने लोगों से चूल्हा बनवाती है।

ज्यादातर फसल की मड़ाई के बाद, पहली बरसात के कुछ पहले के खाली समय में चूल्हे बनाकर रख लिये जाते हैं जो साल भर काम आते हैं। चूल्हे की मिट्टी तालाबों से लायी जाती है और फिर उसमें मोटा भूसा मिलाया जाता है। फिर सधे हाथ इसे ठोक-पीट कर गढ़ते हैं। चूल्हे भी कई प्रकार के होते हैं। बड़ा चूल्हा एक निश्चित जगह स्थायी रूप से बनाया जाता है। यहां सुबह-शाम का खाना बनता है। कुछ चूल्हे मंझोले आकार के होते हैं। इन चूल्हों को कभी बरोठे में, कभी आंगन में और कभी खलिहान ले जाने के लिए बनाया जाता है। प्रायः इन चूल्हों में टिक्कड़, हाथ से बनी हुई छोटी-छोटी रोटियां, बनायी जाती हैं जिन्हें बच्चे खूब मजे से गुड़ के साथ  खाते हैं।

गांवों में चूल्हा एकदम से ठंडा बहुत कम ही होता है। ऐसा होने पर लोग पड़ोस से आग मांगकर  लाते हैं। कुछ न कुछ आग राख के ढेर में दबी रहती है, जिसे समय आने पर फिर से जगा लिया जाता है। इसी धीमी आंच में गाय का दूध धीरे-धीरे पकता रहता है और बच्चे इसमें आलू और शकरकन्द भूनकर खाते हैं। चूल्हा उनकी हर छोटी-छोटी खुशियों में भागीदार रहता है। यह चूल्हा जो सदियों से जनजीवन का हिस्सा रहा है आज भुतहाकार ‘माइक्रोवेव-ओवन’, डिब्बाबंद पकी-पकायी खाद्य सामग्री इसका अस्तित्व समाप्त करने का प्रयास कर रही हैं। चूल्हा हारा नहीं है, पर उसे लोगों की मानसिकता पर तरस आता है। हजारों सालों की जांची-परखी वैधानिक प्रणाली आखिर उनका क्या जवाब दे जो भोजन को परम्परा और जीवनचक्र का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं, बल्कि व्यवसाय समझते हैं?  चू्ल्हा बुझाने के तमाम प्रयासों में ठंडे चूल्हे के तमाम फायदे गिनाये गये, पर नुकसान छिपा दिये गये। डिब्बा-बंद और तमाम ऊलजुलूल खाद्य पदार्थों के विज्ञापनों से शहर की दीवारें अट गयी हैं, पर चूल्हे की बात किसी ने नहीं सुनी है। जैसे मां के ममतामयी दूध का कंपनी की तरह प्रचार नहीं होता, नमक की डली के साथ चूल्हे की सोंधी रोटी भी आखिर अपने गुणों का बखान क्या करे ? भारत में भोजन ‘कैलोरी’ में नापकर ठूंसा हुआ ‘ईंधन’ कभी नहीं रहा। भारतीय भोजन पवित्रता, परम्परा और वात्सल्य का हिस्सा  रहा है जिसे नापा नहीं जा सकता। जैव तकनीक से संरक्षित और संवर्धित खाद्य-पदार्थ आ रहे हैं। एक सुनियोजित नीति के चलते चूल्हे को अप्रासंगिक सिद्ध करने का प्रयास चल रहा है। अब चूल्हा या तो मिटता जा रहा है या वह जहां भी है अपने भाग्य विधाताओं के ही भाग्य पर आंसू बहा रहा है। अब चूल्हे को प्लास्टिक के खिलौनो के रूप में पहचाना जाता है। चूल्हे में दबी संबंधों की गरमाहट भी अब राख के साथ ही बुझ चुकी है।