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जनसंख्या नियंत्रण पर संवाद और नीति निर्माण बहुत जरूरी है। इस के लिए लोगों की सोच बदलने के साथ-साथ देश में एक सख्त कानून बनाना भी जरुरी है। क्योंकि इतने बड़े देश के लोगों की सोच बदलने में इतना समय लग जाएगा कि तब तक स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जायेंगी। इसलिए सोच बदलने के साथ-साथ देश में सबके लिए एक सख्त कानून बनना चाहिए। तभी जनसँख्या वृद्धि पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

बाबा रामदेव ने पिछले दिनों कहा था कि देश में जनसंख्या नियंत्रण बेहद जरूरी है और इसके लिए सरकार को सख्त कदम उठाना चाहिए। बाबा ने तीसरी संतान या इसके बाद वाली संतानों को मताधिकार से वंचित करने की सलाह दी। जनसंख्या नियंत्रण को लेकर दायर याचिका पर संज्ञान लेते हुए कल दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को 4 हफ्ते में कोर्ट में अपना जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। याचिकाकर्ता द्वारा याचिका में मांग की गई कि दो बच्चों के बाद फैमिली प्लानिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए।

आज भी कई जगह बेटे की चाह सर्वोपरि है। लड़कियाँ पैदा होने से पहले ही क्यों मार दी जाती हैं? जन्मी हुई बेटियां हमें भार क्यों लगती हैं?  हम पुत्रियों की तुलना में पुत्रों को अधिक मान्यता क्यों देते हैं?  हमें बेटा ऐसा क्या दे देगा जो बेटी नहीं दे सकती?  बेटे को चावल और बेटी को भूसा समझने की सोच हमारे मन-मस्तिष्क में क्यों पनपी? इस तरह के कई प्रश्नों के उत्तर हमें अपनी दूषित-संकुचित मानसिकता एवं कथनी-करनी में बदलाव लाकर स्वत: ही मिल जायेंगे।

बेटी ससुराल चली जायेगी, बेटा तो हमारे साथ ही रहेगा और सेवा करने वाली दुल्हन के साथ खूब दहेज़ भी लाएगा, जबकि बेटी को पढ़ाने में, फिर उसके विवाह में खर्च होगा और मोटा दहेज़ भी देना पड़ेगा। इतना धन कहां से आएगा?  दहेज़ का ‘स्टैण्डर्ड’ भी बढ़ चुका है। इससे अच्छा है दो-चार हजार ‘एबॉर्शन’ के दे दो और लाखों बचाओ। फिर बेटा तो सेवा करेगा, वंश चलाएगा, मुखाग्नि और पिंडदान देगा तथा श्राद्ध भी करेगा। बेटी किस काम की?’  इस तरह की मानसीकता ने ही आज यह सामाजिक समस्या खड़ी कर दी है।  कसाई बने चिकित्सकों को भले ही दोष दें, परन्तु वास्तविक दोषी तो माता-पिता या दादा-दादी हैं जो दबे पांव कसाइयों के पास जाते हैं।

पुत्र लालसा ने जनसँख्या के सैलाब को विस्फोटक बना दिया है।  बढ़ती जनसंख्या में विकास ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ जैसे लगने लगा है। शिक्षा के प्रसार से लोग इस बात को समझ रहे हैं कि बेटा-बेटी जो भी हो संतान दो ही काफी हैं। आज भी हमारे देश में एक आस्ट्रेलिया की जनता के बराबर जनसख्या प्रतिवर्ष जुड़ती जा रही है। ग्रामीण भारत तथा शहर के पिछड़े तबके में जनसँख्या वृद्धि अधिक है।  हमें एक दोष जनसंख्या नीति अपनानी ही होगी जिसमें दो संतान के बाद ग्राम सभा से लेकर संसद तक की सभी सुविधाएं वंचित होनी चाहिए। पड़ोसी देश चीन ने नीति बनाकर ही जनसँख्या पर नियंत्रण कर लिया है।

जनसँख्या नियंत्रण के आज कई तरीके हैं परन्तु अवैध शल्य चिकित्सा द्वारा भ्रूण हत्या में महिला को पीड़ा के साथ–साथ बच्चेदानी के अंदरूनी पर्त के क्षतिग्रस्त होने की संभावना भी रहती है। उस समय गर्भ से छुटकारा पाने की जल्दी में ऐसी महिलाओं को वांच्छित पुनः गर्भधारण करने में रुकावट हो सकती है, साथ ही बच्चेदानी (यूट्रस) में कैंसर होने का खतरा भी बढ़ जाता है। क़ानून के अनुसार लिंग बताना तथा भ्रूण हत्या करना अपराध है। कुछ ‘कसाइयों’ को इसके लिए दण्डित भी किया जा चुका है।

दुख की बात तो यह है की अशिक्षित एवं गरीबों के अलावा संपन्न लोग भी बेटे के लिए भटक रहे हैं। काश ! इन लोगों को पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर आकाश की ऊँचाइयों को छूने वाली अनगिनत महिलायें नजर आती तो शायद ये अपनी बेटियों के साथ कभी अन्याय नहीं करते और दो बेटियों के आने के बाद किसी लाडले की प्रतीक्षा में परिवार नहीं बढ़ाते। रियो से 2016 में ओलम्पिक दो पदक लाने वाली सिंधु-साक्षी सबके सामने हैं। 18वें एशियाड में भी लड़कियों ने कई पदक जीते।

अब समय आ गया है कि हम देश की जनसंख्या नियंत्रण के बारे में गंभीरता से सोचें। “चार बेटे पैदा करो। एक इसको दो, एक उसको दो, एक को साधु बनाओ और एक को सेना में भेजो” जैसे बयानों पर लगाम लगे और एक जनसंख्या राष्ट्रीय नीति बने जो सभी देशवासियों पर समरूपता से लागू हो।

देवभूमिसंवाद के लिए पूरन चन्द्र कांडपाल की रिपोर्ट