पर्व हमारी संस्कृति के पोषक हैं, जीवन शक्ति है। दीपावली भारतीयों का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण पर्व है। हिन्दू और जैन परंपरा में दीपावली का खासा महत्व है। दीपक की भांति मनुष्य की देह भी मिट्टी ही है, किंतु उसकी आत्मा मिट्टी की नहीं है। वह तो इस मिट्टी के दीपक में जलने वाली अमृत ज्योति है। हालांकि, मनुष्य लोभ, मोह, मद, अहंकार की मोटी परतों से दबा-ढका अपने स्वरूप को भूला बैठा है, वह स्वयं को मात्र मिट्टी की देह समझ बैठा है और मिट्टी की दस देह का श्रृंगार करने में इतना अलमस्त हो गया है कि आत्मज्योति का चिरंतन सच अंधकार में कहीं खो गया है। दीपक की मिट्टी में ज्योति जब तक न उतरे वह अपनी सचाई से वाकिफ नहीं हो सकता। जैसे कि हम अपने वास्तविक स्वरूप से दूर-दूरतम रहने के कारण इंद्रियों से विनिर्मित देह में विचरण करने लगते हैं और इस भ्रम को सच मान लेते हैं। भ्रम का यह आवरण हमें सघन अंधकार में जीने को विवश करता है। इससे जिंदंगीं की घुटन और छटपटाहट फिर से तीव्र और घनी हो जाती है।
आज चारों ओर का वातावरण भयावह है और हरेक व्यक्ति आगे बढने की होड में अपनों को ही पछाडना चाहता है। आज महाभ्रष्टाचारी, रिश्वतखोरी, आतंकवादी क्रियाशील हैं। इनकी करतूत और कारनामों से अतीत के सारे आतंक कमतर नजर आते हैं। क्या हमने कभी अपने उन भाइयों की ओर तनिक भी ध्यान देने का प्रयास किया है जिनको दो वक्त की रोटी भी सकून से नहीं मिल पा रही है, परिवार आर्थिक तंगी का शिकार है। हम लाखों करोड़ो रूपयो को पटाखों के चलाने में व्यर्थ ही खो देते हैं, जिससे हमारा पर्यावरण भी प्रदूषित तो होता ही है साथ ही अनेक घटनाएं जान-माल की हानि की भी देखी जाती हैं। क्या हमने कभी दीपावली पर यह संकल्प लेने का मन बनाया है कि अंधकार में जीने वाले उन लोगों के प्रति सहयोग करने की भावना भायी है। क्या जो हम पटाखों में लाखों रूपये वर्बाद करते हैं वह धन अपने बेसहारा असहाय और गरीब भाइयों की जिंदगी में नया सवेरा भरने में नहीं लगा सकते? आज हम पुण्योदय से आर्थिक रूप से मजबूत हैं, तो इसका मतलब यह तो नहीं कि हमारा जो भाई पापोदय से आज आर्थिक संकट के कारण दुख में है तो हम उसकी सहायता नहीं कर सकते? आज बड़ी बिडम्बना है कि हम अपने ही लोगों को आगे बढता नहीं देख सकते।
बडे़ अजीब से आजकल इस दुनिया के मेले हैं।
दिखती तो भीड़ है, पर चलते सब अकेले हैं।।
जीवन एवं समाज के इस अवसाद और अंधेरे को सदा-सर्वदा के लिए दूर करने के लिए दीपक के सच की अनुभूति का गहरा अनुभव आवश्यक है।
दीपावली पर दीपक जलाते समय दीपक के सच को समझना आवश्यक है। अन्यथा दीपावली की प्रकाशपूर्ण रात्रि के पश्चात् केवल बुझे हुए मिट्टी दीपक हाथों में रह जाएंगे, आकाशीय अमृत-आलोक खो जाएगा। दीपक का सच उसके स्वरूप में है। दीपक मरणशील मिट्टी का होकर भी इस ज्योति का अवतरण कर धारण करने का सबल माध्यम है। दीपक जलता है, आलोक बिखरेता है और तत्पश्चात अपनी मरणशील मिट्टी में समा जाता है। मोल है जलते हुए प्रदीप्त दीपक का, मोल बुझे दीपकों का नहीं होता। दीपक का तात्पर्य है- अपनी वर्तिका में अग्नि को धारण कर प्रकाश बिखेरना। यह घटना असाधारण है और असाधारण है तिल-तिल जलने-गलने का वह संकल्प, जो उसकी मरणशीलता में अमृत घोलता है। इस मिट्टी की ज्योति तो अमृतमय आकाश की है। जो धरती का है, वह धरती पर ठहरा है, लेकिन उध्र्वगामी ज्योति तो निरंतर आकाश की ओर भागी जा रही है।
जब तक अंतर गगन में दीपक का प्रेम, करूणा, दया, सेवा, सहयोग एवं परोपकारिता वाला प्रकाश जगमगाएगा नहीं, मानवता के इस अंध एवं काले तमस् को दूर नहीं किया जा सकता है। जब तक मन नरभ्र गगन में स्वच्छ विचारों की रोशनी नहीं उठेगी, हदय के धवल आकाश में भावनाओं का निर्मल प्रकाश नहीं फूटेगा, वैमनस्यता, अमानवीयता जैसी अहंकारी प्रक्रिया थमेगी नहीं। जिस दिन मानव के अंतर को दीपोत्सव पर्व की एक कोमल, जगमगाती रोशनी छू लेगी, उसी दिन से जीवन की कुहासा-निराशा छंटने लगेगी और जीवन आलोक का नया प्रतीक, पर्याय बन जाएगा। इस आलोक में ही जीवन का लक्ष्य दृष्टिगोचर हो सकता है और इस लक्षित लक्ष्य का सघन मर्म समझ में आ सकता है।
दीपावली पर जलने वाले दीपकों की संख्या एक-दो नहीं, हजारों होती है, परंतु इससे बाहर का अंधकार मिटता है, अंतर का अंधकार तो यथावत् बना रहता है। अच्छा हो कि इस दीपावली में दीपक के सच की इस अनुभूति के साथ हम एक दीपक जलाएं, ताकि इस मरणशील मिट्टी की देह में आत्मा की ज्योति मुस्करा सके।
मिट्टी के दीपक में मनुष्य की जिंदगी का बुनियादी सच समाया है। ऐसा सच जो हमारा अपना है। ऐसा सच जिसमें हमारा अनुभव पल-पल धड़कता है। यह सच ही हमारी धरोहर एवं थाती है, जो कहता है कि तुम स्वयं ज्योतिस्वरूप हो, आत्मस्वरूप हो। अपने अंदर की ओर झांको! अंतर्यात्रा करो!! अंदर में ही सब कुछ समाया हुआ है। दीपावली की अनेक पौराणिक कथाएं हैं। इस दिन भगवान राम आतंक के महापर्याय रावण का वध करके जब अयोध्या नगरी लौटे तो उनका स्वागत प्रकाश महोत्सव के रूप में हुआ। उस दिन हर आंगन में दीपों की कतार लगाई गई। जैनधर्म के अनुसार इस दिन तीर्थंकर महावीर स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी और गौतम गणधर को केवलज्ञान की उपलब्धि प्राप्त हुयी थी।
इस अवसर पर जैन समुदाय निर्वाण लाडू चढ़ाकर और दीपक प्रज्जवलित कर अपनी खुशी का इजहार करता है। ऐसी अनेक और भी पौराणिक कथाएं हैं। इन कथाओं से हम सभी सुपरिचित हैं, परंतु परिचय की इस लंबी प्रक्रिया में हम यदि किसी चीज से अपरिचित रह जाते हैं तो इस महापर्व के गहरे मर्म से। हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी दीपावली धूमधाम से मनाई जाएगी। दीप जलाए जाएंगे। मिठाइयां बांटी जाएंगी। नए-नए अलंकार एवं परिधानों का उपयोग किया जाएगा। श्रृंगार अपनी चरम सीमा को स्पर्श करेगा। उमंग एवं प्रकाश से मिश्रित इस महोत्सव में ऐसा होना तो समृद्धि का प्रतीक है।
दीपावली का मूल मर्म है कि दीपक का प्रकाश हमारे अंदर भी प्रकाशित हो और बाहर भी आलोकित हो।
विश्वास के साथ एक समा जलाए रखिए।
सुबह जरूर होगी, माहौल बनाए रखिए।।
(लेखक चिन्तक, युवा मनीषी हैं)
डॉ. सुनील जैन ‘संचय’
देवगढ़ रोड, ललितपुर, उत्तर प्रदेश