नई दिल्ली: दिल्ली सरकार बनाम उप-राज्यपाल (एलजी) मामले में आज सुप्रीम कोर्ट ने अपना अहम फैसला सुनाते हुए साफ़ कर दिया है कि एलजी दिल्ली के अकेले बॉस नहीं हैं। हर मामले में एलजी की सहमति अनिवार्य नहीं है। कैबिनेट की राय एलजी से मेल न खाए तो उसे राष्ट्रपति को रेफर किया जा सकता है। कुछ मामले केंद्र के पास भी जा सकते हैं। जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और एलजी को मिलकर काम करना होगा।
पांच जजों के बेंच ने सर्वसम्मति से कहा कि असली ताकत मंत्रिपरिषद के पास है। मंत्रिपरिषद के सभी फैसलों से उप-राज्यपाल को निश्चित रूप से अवगत कराया जाना चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इसमें उप-राज्यपाल की सहमति आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के लिए यह भी कहा कि लोकतंत्र मे अराजकता के लिए कोई जगह नहीं हो सकती है और किसी को भी पूरी ताकत देना ठीक नहीं।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने फैसला पढ़ते हुए कहा कि लोकतांत्रिक मूल्य सर्वोच्च हैं। सरकार जनता के प्रति जवाबदेह होनी चाहिए। सरकार जनता के लिए उपलब्ध हो और शक्ति का समन्वय जरूरी है। केंद्र और राज्य को समन्वय के साथ काम करना होगा। संघीय ढांचे में राज्यों को स्वतंत्रता दी गई है। जनमत का महत्व है, इसे तकनीकी पहलुओं में नहीं उलझाया जा सकता है। चीफ जस्टिस ने कहा कि एलजी दिल्ली के प्रशासक हैं। परन्तु एलजी को कैबिनेट की सलाह और सहायता से काम करना होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कर दिया है कि सिर्फ तीन मुद्दे लैंड, लॉ एंड आर्डर और पुलिस को छोड़ दिल्ली सरकार कानून बना सकती है, संसद के बनाए गए कानून सर्वोच्च हैं। एलजी तकनीकी तरीके से उसमे बाधा नहीं डाल सकते। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ़ कह दिय है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज मिलना मुमकिन नहीं है। केंद्र-राज्य मिलकर काम करें।
चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.के. सीकरी, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण की संवैधानिक बेंच इस मामले में फैसला सुनाया। तीन जजों ने एक फैसला पढ़ा, जबकि दो जजों चंद्रचूड़ और जस्टिस भूषण ने अपना फैसला अलग से पढ़ा।