कोई नहीं जानता कि खिलौने कब से आये? पर हां, इतना जरूर है कि जब-जब इस संसार में बच्चे रहे हैं, उनके खेलने के लिए खेल और खिलौने रहे हैं। सभ्यता हड़प्पा की हो या मेसोपोटामिया की, नगरों के नक्शे अलग-अलग रहे हों या शिलाओं में लिखी लिपियां अलग-अलग रही हों, पर शायद ही कोई सभ्यता रही हो जहां खिलौने न मिले हों। यह दृष्टांत बताता है कि खिलौनों का संसार, देश, काल और समय से परे रहा है। हर सभ्यता में बचपन खिलौनों से खेल कर बड़ा हुआ है।
भारत में खिलौनों की बड़ी समृद्ध विरासत रही है। पहले ऐसी नानी-दादी की कल्पना नहीं की जा सकती थी जो अपने घर के बच्चों के लिए खिलौनों का इंतजाम न करती हों। हर गांव में खिलौनों का अपना उद्योग हुआ करता था। कुछ ऐसे घर होते थे जिनकी रोजी-रोटी खिलौने और गुल्लक बनाने से जुड़ी हुई थी। मिट्टी के खिलौनों को महीन मिट्टी एवं भूसी को निश्चित अनुपात में मिलाकर बनाया जाता था। ऊंट की पीठ, बंदर का मुंह और दरबान का डंडा बनाना आसान नहीं था। कच्ची माटी के खिलौने बनाने के बाद उन्हें सुखाया और रंगा जाता था। रंगने के लिए टेसू के रंगों का उपयोग होता था और फिर बाद में कौड़ियों, मोर के पंखों और घुमचुल से सजाया जाता था। दादी इन्हें बनाती थीं और नन्हें बच्चे दौड़-दौड़ कर सहयोग करते थे। धीरे-धीरे सृजन की समृद्ध विरासत बच्चों तक पहुंच जाती थी। टेसू के रंग बच्चों के जीवन में इस तरह घुलते थे कि वे अनायास ही अपनी माटी से प्यार करना सीख जाते थे।
गांव की सीमा के बाहर जाने पर जैसे बोली और पानी का स्वाद बदलता है, गुड़िया का लहंगा और गुड्डे का साफा भी बदल जाता था। ऊंट की जीन और बैल का सींग भी बदल जाते थे, पर छोटे-छोटे चूल्हे, चिमटे और चक्की लगभग एक सी रहा करती थी। सच पूछो तो सृजन का पहला पहाड़ा बच्चे इन्हीं खिलौनों से सीखते थे। खिलौनों में लोक-कथाओं के पात्र भी होते थे। रामायण, महाभारत एवं गौरवशाली संस्कृति की पहली झलक बच्चे इन्हीं खिलौनों से पाते थे।
भारत में खिलौने की परिभाषा बहुत बड़ी थी। गोल-गोल घुमाने का पहिया भी खिलौना था। इसे बच्चे मेड़ों पर लुढ़काते हुए अपने खेतों में पहुचते थे। गुल्लक भी खिलौना था जिसे हजारों सालों से ‘बैंक’ के रुप में मान्यता मिली हुई थी। इस ‘लॉकर’ की सबसे बड़ी रोचकता यह रहती थी कि इसमें जमा रकम खातेदार के लिए खुद एक पहेली थी और कठपुतली का खेल भी खिलौनों का ही परिवर्तित रुप हुआ करता था।
बच्चो के खिलौनों की दुनिया बड़ों की दुनिया के साथ दौड़ती थी। बड़ों की बैलगाड़ी, तो बच्चों की अपनी बैलगाड़ी। इधर घोड़ा, तो उधर भी। इधर चूल्हा-चक्की, तो उधर भी। ऐसे बच्चे जब यथार्थ के संसार में पहुंचते थे, तो उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं होती थी। सब कुछ पहले से देखा-सुना रहता था उनके ऊंट चलते नहीं थे न ही उनकी चक्की में गेहूं पीसा जाता था, पर बचपन से उन्हें वे रोग नहीं होते थे जिनका शिकार आज के बच्चे हो जाते हैं। अब गुड्डा बेरोजगार हो गया है और साथ ही बढ़ रही है बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति। ‘वीडियो-गेम’ से दिमाग बढ़ाने की बात कह कर बच्चों के माता पिता को भरमाया जा रहा है। सच बात तो यह है कि शिथिलता बच्चों का सबसे बड़ा रोग बन चुकी है। कम्प्यूटर के खेलों से आंखें तो पत्थरा जाती हैं, पर मन उदास ही रहता है। इसके लिए किसी नामी-गिरामी संस्था के भारी-भरकम आंकड़े नहीं चाहिए। न ही किसी तथाकथित विशेषज्ञ के ‘कमेंट’ जिन्हें बहुधा वीडियो-गेम बनाने वाली संस्थाएं किराये पर ले आती हैं और उनसे ‘एप्टीट्यूड’ बढ़ाने की झूठी बातें उगलवाती हैं। बच्चों के थके, उदास और बुझे चेहरे खुद अपनी कहानी बयां कर रहे हैं।
अब गुड्डे-गुड़ियों के दिन लद गये। बच्चे अब अपना मनोरंजन मशीनगन और टैंकनुमा खिलौनों से करते हैं। यह परिवर्तन न केवल बच्चों की मानसिकता को प्रदूषित कर रहा है, बल्कि उनका स्वास्थ्य भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। देश के परम्परागत खिलौना बाजार को तहस-नहस करने के बाद अब हिंसक खिलौनों ने बाल-मन पर अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। यहां एक बात यह भी देखने लायक है कि हाल के वर्षों में शिथिलता बच्चों की बीमारियों का प्रमुख कारण बन कर उभरी है। शिथिलता को मृत्यु के प्रमुख दस कारणों में गिना जाने लगा है। वीडियो-गेम के जरिये बच्चे बचपन से ही शिथिलता की आदत डाल रहें हैं। फास्ट-फूड और वीडियो-गेम खेलने का चस्का मिलकर वे सभी इंतजाम कर देते हैं जिनसे बच्चे के अंदर वे सभी रोग हो जाएं जिनके बारे में पहले सोचा भी नहीं जा सकता था।
भारत में अब बिना खिलौने वाले बचपन की शुरुआत हो चुकी है या यूं कहें भारत अब वह देश बन चुका है जहां कायदे के खिलौने नहीं होते। संभवतः तोप-गोला पहले कभी बच्चों के खेल का हिस्सा नहीं रहें, पर अब हैं। खिलौनों के देश भारत में बचपन स्वयं ही एक खिलवाड़ बन चुका है। इसका एक उदाहरण यह भी है कि भारत उन विरले देशों में हैं जहां की सरकार ने खिलौनों के लिए कोई मानदंड बनाया ही नहीं है। खिलौने हैं भी, तो वे बच्चों को परिवेश से नहीं जोड़ते। पुराने जमाने के गुड्डा-गुड़िया अपने भाग्य विधाताओं पर आसुं न बहाएं, तो क्या करें?