Nelson Mandela

आज संडे है। इस मौके पर आपको एक ऐसे महान इंसान का त्याग और समर्पण भरी कहानी बताने जा रहे हैं जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी अपने देश के लोगों के लिए न्योछावर कर दी। लंबे जीवन में युवावस्था इन्होंने समानता का अधिकार दिए जाने को लेकर जेल में ही काटी। जेल में रहते हुए भी उन्होंने हार नहीं मानी। इनके किए गए संघर्ष और त्याग दुनिया के लिए मिसाल बने हुए हैं। विश्व पटल पर इनका नाम स्वर्णिम इतिहास के पन्नों में दर्ज है। ‌उन्होंने श्वेत और अश्वेत (गोरे-काले) के बीच सदियों से चली आ रही दूरी को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

‌हम बात कर रहे हैं अश्वेत और शांति दूत के लिए प्रसिद्ध नेल्सन मंडेला की। आज 5 दिसंबर है। मंडेला की आठवीं पुण्यतिथि है। महान शख्सियत नेशनल मंडेला का पूरा जीवन अपने देश और लोगों के लिए समर्पित रहा। आइए इस मौके पर मंडेला के जिंदगी के पन्ने पलटते हैं। बात शुरू करते हैं दक्षिण अफ्रीका से। यह वही देश है जहां नेल्सन मंडेला का जन्म हुआ था। नेल्सन मंडेला का पूरा नाम नेल्सन रोलिह्लाला मंडेला था। अफ्रीका की आजादी और रंगभेद के खिलाफ उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी। उन्हें लोग प्यार से मदीबा बुलाते थे। उनका जन्म 18 जुलाई 1918 को दक्षिण अफ्रीका के केप प्रांत में उम्टाटा के म्वेजो गांव में हुआ था। मंडेला के पिता कस्बे के जनजातीय सरदार थे।

हालांकि उनके पिता की मृत्यु 12 साल की उम्र में हो गई थी। पिता के मृत्यु के बाद नेल्सन ने वकालत की पढ़ाई करने की ठानी और अपनी जाति के सरदार के पद को त्याग दिया। हालांकि वकालत खत्म होने से पहले ही उन्होंने राजनीति में कदम रख दिया। नेल्सन मंडेला एक ऐसे शख्स थे, जो लड़ते गए। न खुद कभी हथियार डाले और न ही समर्थकों को ऐसा करने दिया। जो आजादी की लड़ाई महात्मा गांधी ने भारत और मार्टिन लूथर किंग ने संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए लड़ी वैसे ही नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के लिए। उन्हें अफ्रीका का गांधी कहा जाता है। भारत में जो सम्मान महात्मा गांधी को मिलता है, उतना ही सम्मान दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला को मिलता है।

बता दें कि मंडेला मार्टिन लूथर और महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित थे। 2009 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने उनके जन्मदिन 18 जुलाई को ‘मंडेला दिवस’ के रूप में घोषित किया। खास बात यह है कि उनके जीवित रहते ही इसकी घोषणा हुई।

रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाई और अफ्रीका को आजाद करा कर ही माने

बता दें कि जैसे भारत में स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी गई थी वैसे ही दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन ने आजादी के साथ रंगभेद के खिलाफ संघर्ष किया। रंगभेद के विरुद्ध आंदोलन की शुरुआत मंडेला ने 1944 में की। उस वक्त मंडेला अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस में शामिल थे। इसी साल उन्होंने अपने दोस्तों और समर्थनकारियों के साथ मिल कर अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग की स्थापना की। 1947 में वे लीग के सचिव भी चुने गए। यहीं से उन्होंने अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया था। ‌

साल 1962 में उन पर लोगों और मजदूरों को भड़काने के आरोप में मुकदमा चलाया गया। इसके बाद मंडेला को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। वहीं साल 1964 से 1990 तक रंगभेद के खिलाफ शुरू किए आंदोलन के चलते भी उन्हें अपने जीवन के 27 साल जेल में बिताना पड़े। सजा के दौरान उन्हें रॉबेन द्वीप में रखा गया, जहां उन्हें कोयला खनिक का काम करना पड़ा। आखिरकार थक हार कर साल 1990 में अफ्रीका की अश्वेत सरकार ने नेल्सन मंडेला की जेल से रिहाई के आदेश दिए। भारत सरकार ने 1990 में मंडेला को भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया। मंडेला भारत रत्न पाने वाले पहले विदेशी थे।

साल 1993 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। मंडेला ने जेल में रहकर रंगभेद की नीतियों के खिलाफ लड़ते हुए न केवल श्वेत-अश्वेत के बीच की खाई को पाटा बल्कि 10 मई 1994 को दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। उनकी सरकार ने सालों से चली आ रही रंगभेद की नीति को खत्म करने और इसे अफ्रीका की धरती से बाहर करने के लिए भरपूर काम किया। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को एक नए युग में प्रवेश कराया। नेल्सन मंडेला ने जिस तरह से देश में रंगभेद के खिलाफ अपना अभियान चलाया, उसने कई देशों को आकर्षित किया। 5 दिसंबर 2013 को 95 वर्ष की उम्र में नेल्सन मंडेला का निधन हो गया। आज मंडेला की पुण्यतिथि पर अफ्रीका समेत दुनिया भर के लोग उन्हें याद कर श्रद्धांजलि दे रहे हैं।