भूली बिसरी यादों के सफ़र में आज हम आपको रोटी के सफ़र के बारे में बताते हैं। रोटी की प्रासंगिकता को भला कौन झुठला सकता है? दुनिया की तमाम चीजें मिलकर भी रोटी के अस्तित्व को झुठला नहीं सकतीं। जब हम तमाम भारतीय ‘डिशों’ की बात करते हैं, तो रोटी की बात भूल जाते हैं। भारतीय पाक-कला का अद्भुत रहस्य रहा है कि रोटी को बेहद स्वादिष्ट ढंग से पकाया जाता था, जिसका मुकाबला कोई ‘पित्जा’ भी नहीं कर सकता।
रोटी बनाने की अद्भुत कला गांवों में है। दही से बनायी जाने वाली ‘हवाई रोटी’, बथुए से बनने वाली ‘बथुआ रोटी’, दूध से बनने वाली ‘शाही रोटी’ बाद में विकसित हुर्इं। पहले ‘टिक्कड़’ का ही रिवाज था। इसमें न बेलन की जरुरत है न तवे की। पानी की मदद से बनने वाली इस रोटी को बनाना कोई हंसी खेल नहीं है। सधे हाथों से पहले इसे गरम राख में रखा जाता है और एक तरफ का हिस्सा हल्का सिक जाने पर मद्धिम आग में पकाया जाता है। इसकी सोंधी खुशबू, पौष्टिकता और स्वाद के लोग दिवाने हुआ करते थे।
‘बाटी चोखा’ की बाटी लगभग गोलाकार होती है। चोखा का मलतब होता है भरता और बाटी रोटी का ही एक प्रकार हुआ करता है। इस रोटी को राख के गरम ढेर में दबाकर पकाया जाता है। इस गोलाकार आटे के बीच में कुछ विशेष मसाले और मक्खन दबा रहता है। गरम करने पर मक्खन और मसाला फैल जाता है। इसकी यूपी के बलिया, देवरिया और बिहार के तमाम क्षेत्रों में आज भी जबरदस्त मांग है।
इंसान की बात हो और रोटी की नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। रोटी कहां से आयी?, कैसे आयी?, इस पर विवाद हो सकता है, लेकिन सच यही है कि रोटी जिंदगी का दूसरा नाम बन चुकी है। ‘रोटी की तलाश में भटकता आदमी’ हो या ‘ रोजी-रोटी का सवाल’ या फिर ‘रोटी-रोटी को मोहताज आदमी की कहानी’ सब रोटी के इर्द-गिर्द घूमती हैं। रोटी है तो राम है। रोटी नहीं, तो राम कहां? रोटी के लिए राम है। राम के प्रिय को भी रोटी-लंगोटी चाहिए ही। जब रोटी के लिए मुश्किल पड़ने लगी, तो लोग गांव छोड़ने लगे। तमाम बड़े शहरों की झोपड़-पट्टी का नारकीय जीवन बताता है कि रोटी के लिए परेशान आदमी क्या-क्या नहीं कर सकता?
खेतों के पक जाने के बाद चैत के महीने में खेत काटने वाले ‘घूमंतू’ लोग आते हैं। इन्हें कहीं-कहीं स्थानीय भाषा में ‘कटइया’ या ‘चैतुआ’ भी कहा जाता है। दिन भर थक-हार कर जब ये प्रदेश के पराये आसमान के नीचे रात में बैठते हैं, तो दर्द भरे गीत गाते हैं। जिसका भावार्थ होता है कि यह सच है कि दो जून की रोटी के लिए हम अपने जमीन की सोंधी माटी छोड़ कर यहां आये हैं, लेकिन यह भी सच है कि हमें आज भी अपना गांव याद आता है।
जिस तरह से अलग-अलग सभ्यताओं के लोगों को उनकी संगीत के प्रति रुचि या रीति-रिवाजों से पहचाना जा सकता है उसी तरह वहां की रोटी भी पहचान का एक तरीका है। मसलन पश्चिमी बंगाल में जिस ढंग की रोटी खायी जाती है वह केरल में बनने वाली रोटी से बिलकुल अलग होती है।
मक्के, सत्तू, बाजरे और चने के आटे की रोटी बनाना सबके बस की बात नहीं। इन सबकी अपनी समृद्ध विरासत ही है। पीढ़ी दर पीढ़ी रोटी लम्बा रास्ता तय करती गयी, लेकिन पिछले कुछ दशकों से जैसे थक सी गयी है। भारत में खाना पेट भरने या कैलोरी में नापने का कोई पैमाना या आंकड़ा नहीं था। यह जीवन-शैली का अभिन्न हिस्सा था। इसमें सदियों पुराना विज्ञान था, जिसकी धरोहर को निजी अनुभव से सजाया, संवारा गया था। इसीलिए यह आश्चर्य का विषय नहीं कि मधुमेह और इसी तरह के तमाम रोग इतने आम नहीं हुआ करते थे। उदाहरण के लिए आयुर्वेद के महान ग्रन्थ में हृदय रोग की औषधि के रुप में जिस विशेष चने के आटे का सेवन बताया गया है वह सत्तू के रुप में पहले से ही प्रयोग किया जाता रहा है। इसी तरह तुलसी के औषधीय गुणों के बारे में आज चर्चा की जा रही है, लेकिन वस्तुतः यह पहले से ही भारतीय रसोई में अपनी जगह बनाए हुए थी।
भुतहाकार विदेशी कम्पनियों द्वारा पॉलीथीन में बंद बनी बनाई रोटी को भारतीय परिवारों में ठूंसने का जो प्रयास चल रहा है उसके बाद पुराने स्वाद लौटने की नहीं, बल्कि उसको किसी तरह बचाने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। रोटी की यह उपेक्षा इतनी मंहगी पड़ेगी इसके विषय में पहले लोगों ने सोचा भी नहीं होगा। छैल-छबीली बनने की प्रतियोगिता में शालीन रोटी चुप है। दुनिया की तमाम पाक-कलाओं में रोटी की जगह पीछे छूट गयी है। रोटी सबसे स्वादिष्ट होकर भी बेमजा हो गयी और न चाहते हुए भी इसे चूल्हे में मुंह छिपाकर रोना ही पड़ा।
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