दिनेश शास्त्री

देहरादून : बागेश्वर विधानसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे ने एक साथ कई संदेश दिए हैं। वर्ष 2022 में हुए चुनाव की तुलना में करीब पांच फीसदी कम मतदान के बावजूद भाजपा ने अपना वोट प्रतिशत कायम रखा है तो यह उसकी उपलब्धि है।

निसंदेह बागेश्वर की जनता ने स्व. चंदनराम दास को श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष महेंद्र भट्ट और उनकी टीम तथा चुनाव का प्रबंधन देख रहे कैबिनेट मंत्री सौरभ बहुगुणा की साख बच गई है। सौरभ बहुगुणा के लिए इस जीत का ज्यादा महत्व है क्योंकि पहली बार भाजपा संगठन ने उन्हें इस तरह की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी, इसलिए उनके लिए यह उपचुनाव किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। चुनाव प्रबंधन के कौशल में उन्होंने एक तरह से अपने दादा हिमालय के वरदपुत्र स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा की याद ताजा कर दी है। सीएम धामी और महेंद्र भट्ट की प्रतिष्ठा तो दांव पर थी ही।

दूसरी ओर कांग्रेस इस बात पर संतोष कर सकती है कि उसका वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2022 के चुनाव में चंदन राम दास को 32211 वोट मिले थे जबकि उस समय कांग्रेस को मात्र 20070 वोट पाकर संतोष करना पड़ा था। कांग्रेस के आज के प्रत्याशी वसंत कुमार तब आम आदमी पार्टी के टिकट पर मैदान में थे और 16109 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे थे। इस बार पार्वती दास को 33247 वोट मिले जबकि कांग्रेस के बसंत कुमार को 30842 मत प्राप्त हुए. 2012 के चुनाव में यही वसंत कुमार बसपा के टिकट पर चुनाव मैदान में थे।

चुनावी राजनीति में पार्टी और प्रत्याशी का निश्चित रूप से बहुत ज्यादा महत्व होता है लेकिन इसमें सिर्फ अंकगणित नहीं चलता। यदि ऐसा होता तो चुनाव अभियान के शुरू में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष करन महरा जिस तरह से दावा कर रहे थे कि वसंत कुमार के अपने वोट और पार्टी के बीस हजार वोट के साथ आम जनता में सरकार के प्रति नाराजगी को देखते हुए कांग्रेस इस चुनाव को भारी अंतर से जीतेगी। लेकिन बागेश्वर के नतीजे ने यह सिद्ध कर दिया है कि पार्टी का वोट प्रतिशत बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होता, अलबत्ता प्रत्याशी का अपना असर जरूर होता है लेकिन आखिर फैसला तो जनता का ही आखिरी होता है।

अब जबकि चुनाव नतीजे आ चुके हैं तो यह बात बेमानी हो जाती है कि अगर ऐसा होता तो वैसा नतीजा होता। लेकिन नतीजे को गांठ बांध कर भविष्य के लिए रणनीति जरूर बनाई जा सकती है। फिर भी देखा जाए तो कांग्रेस जनता का भरोसा जीतने में नाकाम रही। उसने सबसे पहले अपने ही लोगों को नाराज किया और चुनाव में उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ी। कांग्रेस के रंजीत दास को जब पक्का हो गया कि उपचुनाव का टिकट उन्हें नहीं मिल रहा है तो उन्होंने अपना राजनीतिक वनवास खत्म करने के लिए भाजपा का दामन थामने में ही भलाई समझी। जाहिर है ऐन चुनाव से पूर्व भाजपा में शामिल होने पर उन्हें कोई न कोई आश्वासन जरूर मिला होगा, इसकी तस्दीक आने वाले कुछ दिनों में हो जायेगी। आखिर इस सीट से कांग्रेस 2007 से निर्वासन झेल रही है तो राजनीति में लम्बा इंतजार कौन बर्दाश्त कर सकता है?

बसपा और आम आदमी पार्टी से होकर आए वसंत कुमार के लिए पहली बार पार्टी एकजुट दिखी जरूर लेकिन नतीजा बताता है कि यह एकजुटता हृदय से नहीं थी। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि वसंत कुमार के आने से कांग्रेस में कई लोगों की भविष्य की संभावनाएं खत्म सी हो गई थी और आगामी परिसीमन में सीट सामान्य हो जाने की स्थिति में कुछ और लोगों के रास्ते बंद हो जाने का अंदेशा भी स्वाभाविक रूप से था। इस बात से कौन इनकार कर सकता है?

बात करें मीडिया की तो उसे भी इस उपचुनाव की तस्वीर ठीक से पढ़ने में नाकामी ही हाथ लगी है। कारण जो भी हो लेकिन ज्यादातर मीडिया आउटलेट इस उपचुनाव में वसंत कुमार की बेहतर संभावनाएं गिनाते नहीं थक रहे थे। एक सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर तो कांग्रेस की जीत की संभावना 80 और भाजपा की 20 प्रतिशत दिखाई जा रही थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सोशल मीडिया पर वोट करने वाले किसी न किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं और उसी आधार पर अपनी राय जताते हैं जबकि चुनाव में फैसला जनता करती है और उसकी मंशा को पढ़ने में नाकाम लोग परिहास का विषय बन जाते हैं।

निसंदेह इस उपचुनाव में प्रतीक रही पार्वती दास अब विधायक चुन ली गई हैं। बागेश्वर के 32192 लोगों ने उन पर भरोसा जताया है जबकि कांग्रेस को 29382 लोगों ने ही आशीर्वाद दिया। तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस इस उपचुनाव में उलटफेर करने से रह गई। मतगणना के शुरुआत में बेशक उसे बढ़त मिलती दिख रही थी। तब शायद भाजपा के रणनीतिकारों की सांसें भी अटकी होंगी। शुरू में तो ईसीजी के ग्राफ की तरह चुनाव परिणाम आता दिखा लेकिन बाद में पार्वती दास अन्त तक बढ़त बनाए रही और 2810 वोटों के अंतर से जीत कर विधानसभा पहुंच गई।

इस उपचुनाव को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की सीढी भी माना जा रहा था और सत्तरूढ दल के तमाम नेताओं का भाग्य इसी कारण दांव पर माना जा रहा था। उस लिहाज से लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए कम होने का फिलहाल कोई कारण नहीं है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कांटे की टक्कर में भाजपा ने कांग्रेस के सपनों पर पानी फेर दिया है। फिर भी यह निर्विवाद है कि उपचुनाव में कांग्रेस पहली बार लड़ती हुई न सिर्फ दिखी बल्कि खूब लड़ी भी है। मत प्रतिशत बढ़ने से शायद उसका हौसला भी बढ़ेगा।