कालीमठ का महात्म्य गढ़वाल जो प्राचीन ग्रन्थों में स्वर्ण भूमि, तपोभूमि, हिमवन्त प्रदेश, बद्रीकाश्रम, केदारखन्ड तथा उत्तराखंड के नाम से प्रसिद्ध है। पर्वत शिखरों पर अनेक भग्नावशेषों के कारण इसका नाम गढ़वाल पडा। मनु के जल प्लावन के पश्चात आदि सृष्टि की रचना जिस मनोरम स्थान पर हुई, वह अलकापुरी के निकट व्रह्मावर्त के पास इसी भू भाग में है। पृथ्वी का यही सर्वोच्च शिखर जल प्लावन के अवतरण पर सर्वप्रथम चक्षुओं के सम्मुख प्रकट हुआ। आदि मानव ने बद्रीनाथ के निकट अनेक रहस्यमयी स्कन्ध गुफा, नारद गुफा और व्यास गुफा में बैठकर उन्हीं के पास पडोस के पर्वत प्रदेश को काट कर शैल शिखरों पर मानव जीवन प्रारंभ किया था। गढ़वाल की पावन पूज्य भूमि पवित्र धरती पर ऋषियों महर्षियों वेदज्ञों देवज्ञों ब्राह्मणों याज्ञिकों ने अनेक धार्मिक ग्रन्थ वेद वेदांग पुराण स्मृतियाँ शास्त्र आदि रचे जो मानव मात्र कल्याण उपकार सुख शांति आध्यात्मिकता की ओर बढने ईश भक्ति संस्कृति की पहचान आन्नद भौतिक उन्नति आदि के हेतु है। आज नैतिक धार्मिक आध्यात्मिक शिक्षा लेने व देने की आवश्यकता है। भूली बिसरी बातें याद दिलाने की है। सोये को जगाना होगा। पूर्वजों की थाथी से परिचित करना करना होगा और तब वह दिन दूर नहीं जब पुनः हमारा गढ़वाल वही गढ़वाल होगा।

पूरे विश्व में सदियों से ही गढ़वाल का वातावरण शान्तिमय रहा है। जिस कारण ऋषि मुनियों ने यहाँ पर तपस्या करके आध्यात्मिक सत्ता के साथ आत्मसात किया है। शास्त्रों में इस तरह का वर्णन देखने को मिलता है कि ऋषि मुनियों तथा देवताओं की तपस्या भंग करने के लिए आसुरी शक्ति ने भी यहाँ पर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए उपद्रव मचाना शुरू किया। इसी तरह से आध्यात्मिक शक्ति के रूप में कालीमठ का नाम विशिष्टता के भाव को उजागर करता है। जो ऋषिकेश बदरीनाथ हाइवे से रुद्रप्रयाग तक 130किमी ‘यहाँ से गौरीकुण्ड हाइवे गुप्त काशी 42 किमी और गुप्तकाशी से 10 किमी. सरस्वती नदी के तट पर स्थित है। इस मठ की गणना भारत के सर्वश्रेष्ठ मठों में की जाती है। देवी भागवत पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि इस क्षेत्र में दो राक्षसों ने अपना दबदबा बना दिया था। जो शुम्भ निशुम्भ के नाम से जाने जाते थे। ये दोनों असुर बहुत ही बडे बलशाली थे। इस कारण बडे उन्मत्त होकर वहां की जनता का उत्पीड़न करते रहते थे। धीरे-धीरे अपनी निरंकुशता के चलते इन्होंने देवताओं को भी कष्ट देना शुरू कर दिया। इनका प्रभाव इतना बड गया कि देवता भी इन्हें देखकर घवराने लगे। अन्ततः सभी उपायों से थककर ये देवी मां के शरण में गये। मां की घनघोर तपस्या करने लगे। मां भगवती ने उनकी कठोर तपस्या से देवताओं को साक्षात दर्शन देकर कहा- मै तुम्हारी तपस्या से खुश हूँ। जनकल्याण हेतु मुझसे वर मांगिये। देवताओं ने कहा-आपसे कोई भी बात छिपी हुई नहीं है। शुम्भ-निशुम्भ के आंतक से तीनों लोक भयभीत हैं ‘इससे मां हमारी रक्षा करो। मां भगवती ने कहा कि जनहित के लिए मैं इन असुरों का संहार अवश्य करूँगी। माँ ने शुम्भ-निशुम्भ का संहार करके उनके दोनों सिर कालीमठ मे कुन्डी में गाढ दिये। आज भी मन्दिर के अन्दर कुन्डी के रूप में पूजा की जाती है। अष्टमी की रात्रि को यह कुन्डी खोल दी जाती है। सुसज्जित सुंदर परिधान में मा भगवती का दिव्य स्वरूप भक्तों के दर्शन हेतु बाहर लाया जाता है। चारो ओर मां की किरणों का प्रकटीकरण होने लगता है। पूरे भारतवर्ष में कालीमठ ही इस तरह का मन्दिर है जहां माता लक्ष्मी और सरस्वती व काली माता की एक साथ पूजा अर्चना  की जाती है।

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मान्यता है कि यहां पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा चौरासी हजार ऋषि मुनियों ने मां काली की आराधना की है। मान्यता यह भी है कि मा काली ने यहाँ पर रक्तबीज का भी बध किया। रक्तवीज को यह वरदान प्राप्त था कि रक्त की एक भी बूंद जमीन पर गिरने पर हजारों रक्तबीज पैदा होंगे। मां काली ने रक्तबीज के सम्पूर्ण रक्त का रसपान किया। इस कारण माँ भगवती को रक्तप्रिया भी कहा जाता है। रक्तबीज व असुरों का संहार करने के बाद माँ इसी काली मठ में अंतर्ध्यान हो गई। यह मां काली का सिद्घ क्षेत्र मना जाता है। यहां पर सच्ची श्रद्धा से मां काली का सामान्य उच्चारण करने मात्र से मनोकामना पूर्ण हो जाती है। शास्त्रों में कहा गया है-अनन्ताकाश में चतुर्भुज रूप में परिणत होकर वही विश्व का संसार करती है। इसी का प्रतीक भगवती की चार भुजायें हैं। संसार का प्रतीक खड्ग है। नष्ट हुए प्राणियों का प्रतीक कटा मस्तक है। अभय पद की प्राप्ति उसी की आराधना पर निर्भर है। इसी का प्रतीक अभय मुद्रा है। वही वर प्रदान करके साधक की इच्छा पूर्ण करती है। इसका प्रतीक वर मुद्रा है। इस भीषण युग में मां काली ही मानव का कल्याण करती है। नवरात्रि में यहाँ माँ के दर्शन करने के लिए देश विदेश के यात्रियों का तांता लगा रहता है। वैसे सामान्यतः भी भक्त जन अपनी मनोकामना हेतु मां की चौखट पर आते रहते हैं। कालीमठ के पास ही कविल्टा गाँव है।

कहा जाता है कि कालीदास ने भी यहाँ पर माँ काली की घनघोर तपस्या की थी। मां काली की कृपा से कालीदास कवि कुल गुरू व संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुए। इन्होंने यहाँ बैठ कर मेघदूत की रचना कर डाली। कालीमठ तन्त्र साधना के लिए सबसे महत्वपूर्ण तीर्थस्थल मना जाता है। यहां पर साधना का फल जल्दी मिल जाता है। माँ अपने भक्तों का सम्पूर्ण कष्ट निवारण कर देती है। यहां से लगभग 8 किलोमीटर की चढाई पर काली शिला स्थित है। जहां पर माँ भगवती के 64 यन्त्र हैं। मान्यता है कि इस चढाई पर चढ़ते हुए मां काली का ध्यान करके चढाई का पता नहीं चल पाता है। उत्साह का संचार पैदा होने के साथ ही सम्पूर्ण शरीर रोमांचित होने लगता है। इस शिला पर तीन दिन तक जो भी भक्त जागरण करता है। वह भय मुक्त होकर राजाओ की तरह जीवन यापन करता है। पुराणों में वर्णित है कि माँ काली ही महामाया है। यह जग उसी से संचालित हो रहा है। जो कि ज्ञानीजनों के चित्त को भी बलपूर्वक खींचकर अपनी ओर आकर्षित करती है। यही वह अनन्त शक्ति है जिसका आलम्बन पाकर विद्वान व मूर्ख धनी व निर्धन, बलिष्ट व दुर्बल अपनी निश्चित दिशा की ओर प्रगति कर रहे हैं।

लेखक: अखिलेश चन्द्र चमोला हिन्दी अध्यापक राइका सुमाडी ।