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पौड़ी बटी ही निकल्द दगड्या मिठ्ठू पाणी रे

श्रीनगर गढ़वाल:  रा.इ.कॉ. धद्दी घंडियाल (बडियारगढ़), टिहरी गढ़वाल में रसायन विज्ञान के प्रवक्ता संदीप रावत अपनी मातृभाषा गढ़वाली के प्रति बहुत गहरा प्रेम रखते हैं| शिक्षक, कवि, गीतकार एवं लेखक संदीप रावत की अब तक चार गढ़वाली पुस्तकें, सैकड़ों गढ़वाली आलेख प्रकाशित हो चुकी हैं| इसके अलावा संदीप रावत उत्तराखंड और राज्य के बाहर भी विभिन्न मंचों पर अपनी गढ़वाली कविताओं और गीत रचनाओं का पाठ कर चुके हैं| सबसे अहम बात यह है कि शिक्षक संदीप रावत उन गिने-चुने लेखकों में से हैं जो गढ़वाली भाषा में गद्य व पद्य विधा पर समानान्तर रूप में लिख रहे हैं, जबकि आमतौर पर यह देखा गया है कि जादातर गढ़वाली भाषा में केवल कविताएं ही लिख रहे हैं|

संदीप रावत गढ़वाली भाषा एवं साहित्य को समर्पित “आखर” समिति (श्रीनगर गढ़वाल) के संस्थापक व अध्यक्ष हैं| जिसके माध्यम से वह अपनी टीम के साथ  गढ़वाली भाषा एवं साहित्य का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं| और नई पीढ़ी को अपनी मातृभाषा से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं| व्यक्तिगत रूप से भी वह अपनी मातृभाषा के लिए बहुत पहले से प्रयासरत हैं| इसके अलावा वे अपने विद्यालय में भी अतिरिक्त समय में छात्र-छात्राओं को समय-समय पर गढ़वाली भाषा एवं साहित्य की जानकारी देते रहते हैं| और साथ ही छात्रों को गढ़वाली में भी कुछ न कुछ लिखने हेतु प्रोत्साहित करते हैं| संदीप गढ़वाली कवि सम्मेलनों का आयोजन व संयोजन भी करते हैं| अभी हाल ही में श्रीनगर गढ़वाल में हुए “आखर” गढ़वाली कवयित्री सम्मेलन के मुख्य सूत्रधार संदीप रावत ही थे|

संदीप रावत की कविताएं एवं रचनाएं जो आम लोगों द्वारा एवं सोशियल मीडिया पर पसंद की गईं उनमें से –एक लपाग, खुद, ना भूखू रौऊ ना तीसू क्वी (गढ़वाली वन्दना),  बगत कनु बि हो दगड्या तू हिटदी जा (तू हिटदी जा),  रंगीला पिंगला रंगों की संग मा (बसंत), मी वे मुल्क को छौं जख डाँडीं-काँठी बच्यांद (मी वे मुल्क को छौं) , पौड़ी बटी ही निकल्द दगड्या मिठ्ठू पाणी रे (भली -छ्वीं बत्थ), तेरी छाली माया मा आदि प्रमुख हैं| पिछले वर्ष बालिका शिक्षा पर उनकी लिखी रचना “ बेटी बचावा बेटी पढ़ावा मेरा मुलक्यो, बेटी पढ़ैकि पुण्य कमावा मेरा मुलक्यो” को उनके ही स्कूल की छात्राओं ने स्कूल द्वारा आयेजित कार्यक्रमों में गाया, जिसे काफी सराहना मिली|  इनकी रचनाएं “कविता कोश” में भी शामिल की गईं हैं |

शिक्षक, गढ़वाली साहित्यकार एवं गीतकार संदीप रावत का जन्म 30 जून 1972 को पौड़ी जिले के पोखड़ा विकास खण्ड के अलखेतू (कसाणी) में हुआ|  उनके पिता महावीर सिंह भी एक सेवा निवृत शिक्षक हैं| वर्तमान में वह न्यू डांग, श्रीनगर में निवास करते हैं| संदीप रावत कहते हैं कि अपनी मातृभाषा गढ़वाली के प्रति यह प्रेम और संस्कार उन्हें अपने माता-पिता व बड़े भाई से मिले और साथ ही बचपन से ही उनका गढ़वाली गीतों व साहित्य के प्रति रुझान रहा है|

उनकी एक बहुत ही सुन्दर गढ़वाली रचना ना भूखू रौऊ, ना तीसू क्वी, ना नंगु ना रुन्दू रुपराणु क्वी.. को नीचे दिए गए यूट्यूब लिंक पर जरुरू सुनें.

उनकी जो चार गढ़वाली पुस्तकें प्रकाशित हैं वे इस प्रकार हैं

(1) एक लपाग (गढ़वाली कविता-गीत संग्रह)

(2) गढ़वाळि भाषा अर साहित्य कि विकास जात्रा (गढ़वाली भाषा साहित्य का ऐतिहासिक क्रम) – यह पुस्तक गढ़वाली भाषा एवं इसके साहित्य की एक संदर्भ एवं शोधपरक  पुस्तक है  जोकि गढ़वाली भाषा के इतिहास एवं इसके साहित्य पर गढ़वाली में लिखी गई पहली पुस्तक है |

(3) लोक का बाना (गढ़वाली आलेख संग्रह)

(4) उदरोळ (गढ़वाली कथा संग्रह)

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