यूं तो गर्मिंयों मे उत्तराखण्ड के जंगलों मे आग लगना कोई नयी बात नहीं है परन्तु इस साल आग ने कुछ ज्यादा ही विकराल रूप ले रखा है, जबकि पहाड़ों में इस बार बारिश भी काफी हुई है। वन विभाग के तमाम दावों, प्रयासों के बावजूद उत्तराखण्ड के जंगल आग से धधक रहे हैं। आग का सबसे ज्यादा प्रभाव गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी, श्रीनगर व पौड़ी में हुआ है जबकि कुमाऊं क्षेत्र के बागेर, अल्मोड़ा व भवाली आदि जगहों पर आग ने तांडव मचा रखा है। इस आग से एक ओर जहां राज्य की बहुमूल्य वन संपदा, वन्य जीव जंतु तो नष्ट हो ही रहे हैं वहीं दूसरी ओर वातावरण में चारों तरफ धुंआ ही धुंआ फैल गया है। जिससे जनमानस व मवेशियों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है। पूरे प्रदेश में अभी तक अग्नि दुर्घटना की 650 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं, इससे कई हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में वन संपदा बुरी तरह प्रभावित हुई है। वन विभाग के मुताबिक वनाग्नि से अभी तक प्रदेश को बीस लाख रुपये से भी ज्यादा का नुक़सान हो चुका है। गढ़वाल मंडल में अभी तक सर्वाधिक 244 वनाग्नि की घटनाएं हो चुकी हैं. इसमें अकेले पौड़ी में 186 अग्नि दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, यहां 480 हेक्टेयर क्षेत्रफल में वन संपदा प्रभावित हुई है। कुमायू मंडल का भी लगभग यही हाल है। अभी भी बागेश्वर, अल्मोड़ा और भवाली के जंगलों ने भीषण आग के साथ-साथ गहरी धुंध छायी हुई है। वन्य जीव जान बचाने के लिए जंगलों से गांवों की ओर आ रहे हैं, जिससे ग्रामवासी काफी दहशत में हैं।  हर साल गर्मियों में लगने वाली इस आग का सबसे मूल कारण है उत्तराखंड के जंगलों में अधिकांश संख्या में चीड़ के पेड़ों का होना है। राज्य सरकारों ने इस ओर कभी नहीं सोचा की जो चीड़ पानी के स्रेतों को खत्म करने में मुख्य भूमिका निभाता है वही आग लगने का भी प्रमुख कारण है चीड़ की  जगह नये चौड़ी पत्तियों के पेड़ जैसे बांज, बुरांश, काफल इत्यादि के पेड़, लगायें जायें।जोकि जमींन के अंदर जल संचय का काम भी करते हैं, और इनकी पत्तियाँ चीढ़ की तरह ज्वलनशील भी नहीं होती हैं। क्योंकि सरकार के लिए चीड़ के पेड़ काफी कमाई के श्रोत हैं, शायद इसीलिए सरकार ने इस ओर कभी ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा।