नई दिल्ली: उत्तराखंड राज्य के लिए जिन लोगों ने एक सपना देखा था और अपनी जान को दांव पर लगाकर उसकी नीव रखी थी वो आज अपनी अनदेखी व उत्तराखंड की हालत को देखकर बहुत ही दुखी है। उत्तराखंड के लिए हर उत्तराखंडी ने भरपूर सहयोग किया किन्तु उनमें से कुछ लोग ऐसे थे जिन्होंने परिवार व रोजगार की परवाह किये बगैर अपना सब कुछ उत्तराखंड आंदोलन में झोंक दिया था उन्हीं में से एक थे उमेश रावत।
मूलरूप से उत्तराखंड में चमोली जिले के रतूड़ा गांव के एक फौजी/किसान परिवार में जन्मे उमेश रावत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही पूरी की हुई तत्पश्चात सिमली से इंटर करने के बाद अपने शैक्षणिक काल में ही वे उत्तराखंड की तमाम संस्थाओं से जुड़े रहे और पढ़ाई बीच में ही छोड़ उत्तराखंड आंदोलन में कूद पड़े। बाद में आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें दिल्ली आना पड़ा और यहीं दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन करने लगे। किन्तु दिल्ली में भी उनके दिल मे गढ़वाल ही समाया था यही कारण है कि वे दिल्ली में उत्तराखंड जन मोर्चा के साथ जुड़कर उसके सक्रिय सदस्य रहे एवं बाद में युवा मोर्चा के अध्यक्ष भी बने और यहां भी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर अपनी सेवाएं राज्य आंदोलन के लिए देने लगे।
नब्बे के दशक में सम्पूर्ण उत्तराखंड से राज्य आन्दोलन को लेकर जो चिंगारी उठी दिल्ली आते-आते उसने विकराल आग का रूप ले लिया था। जिसका नतीजा ये हुआ कि हर उत्तराखंडी इस आंदोलन से जुड़ गया और 2 अक्टूबर 1994 को लाल किले में एक विशाल रैली के लिए जन सैलाब उमड़ पड़ा। पर अपने ही कुछ जयचंदों ने रैली में पत्थरबाजी कर पुलिस को वो करने पर मजबूर कर दिया जो सरकार चाहती थी वहां अफरातफरी का माहौल था, लाठी चार्ज हो रहा था, पर उमेश रावत अपने जुझारू स्वभाव के कारण अपने मित्रों की सहायता कर रहे थे। इसीबीच अचानक एक गोली उनके पांव में लगी और वे वहीं बैठे रह गए। काफी देर तक वहीं इसी स्थिति में पड़े रहे फिर किसी ने उन्हें हिंदूराव अस्पताल में भर्ती किया। वहां उनका उपचार ठीक से नही हुआ तो परिजन उन्हें सफदरजंग अस्पताल ले गए उनकी इस हालत से उनका पूरा परिवार आहत था।
एक साल तक वे अस्पताल में जीवन जीने को मजबूर हो गए। पूरे एक वर्ष इलाज चलने के बाद वो चलने लायक तो हुए किन्तु पांव में आज भी गोली से बने घाव का निशान साफ दिखाई देता है और दर्द की टीस आज भी उन्हें परेशान करती है। इस हादसे के दौरान उनके एक दांत पर भी चोट लगी थी। उनकी इस हालत के कारण नौकरी चली गई उससे पूर्व सगाई भी हो गई थी जिस वजह से वे बहुत टूट चुके थे किंतु उनकी होने वाली पत्नी सरिता रावत व परिवार के सदस्यों ने उन्हें हौसला दिया उसी का नतीजा था कि वे अपने आप को संभाल सके।
हॉस्पिटल से निकलने के बाद सबसे बड़ी समस्या रोजी रोटी की थी ऐसे में कुछ पुराने साथियों का सहयोग मिला उसके बाद शुरू हुआ खुद को आंदोलनकारी चिन्हित करने का सिलसिला। अनेकों पत्रव्यवहार करने व नेताओं के दरवाजे पर जूते चप्पल घिसने के बाद भी कोई उनकी सुनने को तैयार नहीं था। इस बीच कुछ ऐसे लोगों को चिन्हित कर दिया गया जिनका किसी भी कोण से आंदोलन से लेना देना नहीं था ऐसे में भी उमेश रावत ने संयम बनाए रखा और उत्तराखंड के लिए लगातार खुद को झोंकते रहे। उनके संघर्ष का ही नतीजा था कि कुछ महीने पहले ही सरकार ने उन्हें उत्तराखंड आंदोलनकारी चिन्हित कर उनको 3100 रुपये मानदेय देना शुरू किया है जबकि गंभीर रूप से घायल लोगों को सरकार 5100 रुपये मानदेय दे रही है।
कहने का तात्पर्य ये कि जब नेताओं ने अपने चहेतों को नौकरी दी तो एक जुझारू व मौत के मुंह से वापिस आए आंदोलनकारी को दर-दर के धक्के खाने पर मजबूर कर दिया। आज भी वो एक साधारण सी प्राइवेट नौकरी कर परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। इतने संघर्ष व पारिवारिक विरोध के बाद भी ये उत्तराखंडी लाल आज भी अपने प्रदेश के लिए खुद को न्यौछावर करने के लिए तत्पर है। ऐसे महान व्यक्तित्व को मेरा सलाम।
जय उत्तराखंड- द्वारिका प्रसाद चमोली की कलम से