प्रयोगों में पाया गया है कि मां के पेट में पल रहा एक पूर्ण भ्रूण भी मां की आवाज को समझ सकता है। जहां वह अपनी मां की आवाज सुनकर खुश होता है, वहीं किसी अनजानें व्यकित की आवाज सुनकर वह दुबक जाता है। शोधकर्ता अब मशविरा दे रहे हैं कि बच्चे के बेहतर मानसिक और शारीरिक स्वास्थय के लिए मां को सुरीले गीत गाने चाहिए। शोधकर्ताओं का आशय शायद ऐसे गीतों की तरफ होगा जिन्हें भारत में ‘लोरी कहा जाता है।
कोई नहीं जानता कि भारत में लोरियों की परम्परा कब और कैसे आयी? हां, इतना जरूर है कि भारत में ऐसे बच्चों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी जिसने अपनी मां से लोरी न सुनी हो। रात की छिटकी चांदनी में जब सारी दुनिया थक जाती थी, तो बच्चे रोज रात सुनते थे एक लोरी। इन लोरियों में बच्चा सुनता था कि आसमान की चादर में टंके हुए सितारे उसकी चादर है, चांद उसका झूला है और रोज रात एक परी उसके लिए सोने का सिंहासन लेकर आती है। लोरी में उस ‘नींद रानी’ को बुलाया जाता था जो बच्चे से मचलकर बहुत दूर चली जाती थी।
लोरी मापने का कोई पैमाना तो नहीं था, लेकिन लोग इतना जरूर मानते थे कि लोरी के जरिए बच्चा लयबद्ध होता है। आज के जमाने की तरह बच्चों में इतनी मानसिक विकृतियां नहीं हुआ करती थी न ही टीवी पर मारधाड़ देखते-देखते बच्चे वहीं गर्दन लुढ़काकर सो जाया करते थे। पहले ज्यादातर संयुक्त परिवारों की परम्परा होती थी। वैसे तो मां ही बच्चे को लोरी सुनाकर सुलाती थी, लेकिन यह काम घर की नानी-दादी भी किया करती थी। लोरी का न कोई लिखित साहित्य होता था न ही इसकी किसी कक्षा में पढ़ाई हुआ करती थी और न ही यह किसी जाति, धर्म का हिस्सा थी। यह परम्परा थी, शांति का संगीत था और मातृत्व की निश्छल अभिव्यक्ति थी। इसके अनगढ़ शब्दों में एक मां के भाव होते थे जिनमें व्याकरण का पूर्वाग्रह नहीं होता था।
इन्हें सुनने वाला भी वह होता था जिसे दुनिया की कोई भी भाषा नहीं आती थी। इन लोरियों से ही उसे यह अनजान दुनिया अपनी लगती थी। बच्चों को लोरियां कितनी भाती हैं यह तो कोई नहीं जानता, हां इतना जरूर है कि एक मचलता बच्चा इन्हें सुनकर चुप हो जाता है। लोरियां अनजान गृह से आये नन्हें बच्चे की पहली साथी-संघाती हुआ करती हैं। वह लोरियों के बोलों से ही इस अनजानी दुनिया को सुनता-समझता है। राजे-रजवाड़े हों या थकी-हारिन कामगारिन, सबकी लोरियों के एक ही बोल हुआ करते थे। लोरी सब बच्चे सुनते थे। जरूरी थी लोरी न कि बिछौना।
लोरियों में विभिन्नता हुआ करती थी। गांव के पार यदि पानी बदलता था, तो लोरी भी। पूर्वी राज्यों में गायी जाने वाली लोरी बुंदेलखण्ड में गायी जाने वाली लोरी से अलग हुआ करती थी और पंजाब प्रांत में गायी जाने वाली लोरियां आसाम में गायी जाने वाली लोरियों से अलग होती थी। लेकिन खासियत सबकी एक ही होती थी।
कहते हैं संसार में मातृत्व सबसे बड़ा संबंध होता है। एक मां अपने बेटे को नहीं बता सकती कि वह उसे कितना चाहती है। लोरी इसी मर्मतत्व के बोल थी। शायद इसीलिए मां लोरी गाते-गाते भावविभोर हो जाती थी। उसके हाथ थपकी देते-देते कभी नहीं थके न ही उसकी आवाज कभी भर्राई।
पॉप धुनों की धमाचौकड़ी लोरी के सुरीले बोलों को लील गयी हैं। पश्चिमी सभ्यता की ललक में तमाम परिवार इस बात का इंतजार करते रहे कि कोई विदेशी कह दे कि लोरी के सुरीले बोल बच्चों के लिए ‘सांइटिफिक्ली’ बहुत ‘पॉजिटिव’ होते हैं। आज यदि हम चाहें भी, तो लोरियां वापस नहीं आ सकती। टूटते संयुक्त परिवार में नानी-दादी की जगह बची नहीं और जब मां ने ही लोरी नहीं सुनी, तो बेटे को भला वह क्या सुनाए? लोरी न सुनने-सुनाने के कारण एक हूक सी रह गयी जो अब भरी नहीं जा सकती, केवल अफसोस किया जा सकता है। कंकरीट के जंगल की खट-खट में ‘बचपन’ चौंककर ऐसा जागा कि फिर दोबारा सोया नहीं क्योंकि उसने लोरी नहीं सुनी थी।