हिंदुस्तान की नौजवान पीढ़ी, आज के आजादी के माहौल में खुलकर अपने विचार रखती है। सरकार की आलोचना भी करती है, सोचिये अगर, ट्विटर, फेसबुक या व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया पर सेंसर लग जाए। टीवी पर वही दिखे, अखबार में वही छपे जो सरकार चाहे, यानी बोलने-लिखने-सुनने की आजादी पर सेंसर लग जाए तो क्या होगा? आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन जिन लोगों ने 43 साल पहले आपातकाल का दौर देखा है वही जानते हैं कि तब क्या हुआ होगा? आपातकाल के चार दशक पूरे हो गए हैं। सब कुछ बदल गया, पर नहीं बदली तो इसकी यादें।

25 और 26 जून की आधी रात को हुई थी आपातकाल की घोषणा

आज से 43 साल पहले 25 जून 1975  को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन देश मे आपातकाल की घोषणा कर दी थी। आपातकाल, मतलब सरकार को असीमित अधिकार, सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी। मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक समय था। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती है। आपात काल का यह दौर 21 मार्च 1977 तक यानी पूरे 21 महीने चला।

वो क्या कारण थे जिनकी वजह से देश मे इमरजेंसी लगानी पड़ी

यह सवाल हर देशवासी जानना चाहता है कि 43 साल पहले देश में ऐसा क्या हुआ, कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश मे इमरजेंसी (आपातकाल) लगानी पड़ी।

जानकारों के अनुसार यूं तो आपातकाल लगाने के पीछे कई कारण हो सकते हैं, परन्तु एक मुख्य वजह जो दिखती है वो 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राजनारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी। राजनारायण सिंह की दलील थी कि इन्दिरा गांधी ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया, तय सीमा से अधिक पैसा खर्च किया और मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी का चुनाव निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव न लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया और उनके मुकाबले हारे और श्रीमती गांधी के चिरप्रतिद्वंद्वी राजनारायण सिंह को चुनाव में विजयी घोषित कर दिया था। इससे इंदिरा गांधी पूरी तरह बैखला गयी थी। और उन्होंने इस्तीफा देने से साफ़ इनकार कर दिया था। इसके अलावा तत्कालीन सरकार की नीतियों की वजह से महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई थी, गुजरात और बिहार में शुरू हुए छात्र आंदोलन से उद्वेलित जनता सड़कों पर उतर आई थी। जिस रात को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, उस रात से पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में एक विशाल रैली हुई। जिसने इंदिरा सरकार को हिलाकर रख दिया था। वो तारीख थी 25 जून 1975। इस रैली में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ललकारा था और उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया। इस रैली में विपक्ष के लगभग सभी बड़े नेता थे। यहीं पर राष्ट्रकवि दिनकर की मशहूर लाइनें सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” की गूंज नारा बन गई थी। और 29 जून को कांग्रेस विरोधी ताकतों ने पूरे देश मे हड़ताल का अह्वान किया था।
शायद इन्ही सब वजहों से इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की सलाह पर धारा-352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल लगाने का फैसला किया। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और इंदिरा गांधी के सहायक आर के धवन कहते हैं कि अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार था तो वो सिद्धार्थ शंकर रे थे जिनका रोल सबसे अहम था। क्योंकि 29 जून को कांग्रेस विरोधी ताकतों ने हड़ताल का अह्वान किया था इसलिए 25 जून को इमरजेंसी लगा दी गयी।

आपातकाल के दौर मे क्याक्या हुआ

आपातकाल, मतलब सरकार को असीमित अधिकार आपातकाल वो दौर था जब सत्ता ने आम आदमी की आवाज को कुचलने की सबसे निरंकुश कोशिश की गयी। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती है। आपात काल का मतलब था कि इंदिरा जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं। लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी। मीडिया और अखबार आजाद सरकार के खिलाफ कुछ नहीं लिख सकते थे, सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी।, सारे विपक्षी नेताओं को जेल मे दाल दिया गया था, सरकार का विरोध करने पर दमनकारी कानून मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिए गए। खुद जेपी की किडनी कैद के दौरान खराब हो गई। कर्नाटक की मशहूर अभिनेत्री डॉ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकलीं, बाद में उनकी मौत हो गई। उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं। देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। बड़े नेताओं के साथ जेल में युवा नेताओं को बहुत कुछ सीखने-समझने का मौका मिला। लालू-नीतीश और सुशील मोदी जैसे बिहार के नेताओं ने इसी पाठशाला में अपनी सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक पढ़ाई की।
एक तरफ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे। संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया उसके लिए जेल के दरवाजे खुले थे।
मीडिया ही नहीं न्यायपालिका भी डर गई थी। दरअसल, जबलपुर के एडीएम ने अपने आदेश में कहा था कि आपातकाल में संविधान के आर्टिकल 19 के तहत स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी। यहां तक कहा गया कि किसी निर्दोष को गोली भी मार दी जाए तो भी अपील नहीं हो सकती क्योंकि आर्टिकल 21 के तहत जीने के आधिकार भी खत्म हो चुके हैं। लिहाजा जुल्म की इंतेहा ही हो गई थी। इमरजेंसी के दौरान अत्याचार हुए, नवयुवकों की पकड़-पकड़ कर नसबंदी की गई। गांवों में डाक्टरों ने नसबंदी के आंकड़े पूरे करने के लिए जिस प्रकार फर्जी तरीके से नसबंदी की और झूठे आंकड़े पेश किए। उसी से लोगों में गुस्सा और कांग्रेस के खिलाफ नफरत फैली। आपातकाल लागू करने के लगभग 21 महीने बाद भी हालात और बदतर होते देख इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर 1977 में चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। और इन चुनाव परिणामों मे देश की जनता का गुस्सा साफ दिखाई दिया। कांग्रेस यह चुनाव बुरी तरह हार गई, खुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घटकर 153 पर सिमट गई। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। और आजादी के 30 वर्षों के बाद देश मे पहली बार जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। परन्तु इंदिरा गांधी की राजनितिक सूझबूझ कह लीजिये या जनता पार्टी के अंदरुनी अंतर्विरोध, नई सरकार मात्र दो वर्ष मे ही 1979 में गिर गई। और इसके बाद 1979 में दुबारा हुए आम चुनावों मे इंदिरा के नेतृत्व मे कांग्रेस ने जबरदस्त वापसी करते हुए दुबारा से सत्ता हासिल कर ली।

आपातकाल के कुछ सकारात्मक पहलू

ऐसा नहीं है कि इमरजेंसी का पूरे देश में एक जैसा विरोध हुआ क्योंकि 1977 के चुनाव में कांग्रेस का जहां उत्तर भारत में सफाया हो गया वहीं दक्षिण के प्रदेशो में कायम रही। इंदिरा गांधी रायबरेली में राजनारायण के हाथों पराजित होने के बाद भी दक्षिण भारत से चुनाव जीत गई। इमरजेंसी का यह पहलु आज भी हमें याद है और इस पर हम हर साल चर्चा करते हैं और कहते हैं कि वह खराब थी, लोकतंत्र की हत्या थी। लेकिन उस पहलु को कोई याद नहीं रखना चाहता, जिसने देश की कानून व्‍यवस्‍था, प्रशासन और सरकारी कामकाज को दुरुस्‍त करने के लिये सख्‍ती अपनायी। कहते हैं कि आपातकाल के दौरान बसों से लेकर कर्मचारी तक सब रहते थे राइट टाइम, इमरजेंसी का ऐसा डर था कि कर्मचारी अपने दफ्तर 10 बजे से पहले ही पहुंच जाते थे। घूस का बोलबाला उस समय भी ऐसे दफ्तरों में आम था, लेकिन इमरजेंसी ने सारी स्थितियां ही बदल कर रख दी थी कोई बाबू हो या अधिकारी उसकी घूस लेने की हिम्मत नहीं पड़ती थी, लोग अपने पास जमा घूस की रकमों को अपने रिश्तेदारों के पास रख आए थे। हालात यह हो गए थे कि शहरों में चलने वाली बसें एकदम समय पर छूटने लगी थीं। घूस लेने की हिम्‍मत नहीं पड़ती इमरजेंसी के समय महत्वपूर्ण सरकारी पदों में रहने वाले व्यक्तियों के अनुसार 1975 की गर्मियों में जैसे ही इमरजेंसी की घोषणा हुई और खुफिया विभाग के अधिकारियों ने भष्ट्र अधिकारियों के घरों पर छापा मारकर अवैध संपत्ति पकडऩा शुरू किया। इमरजेंसी के दौरान कोई भी सरकारी काम लेट नहीं होता था। फिर चाहे बर्थ सर्टिफिकेट हो या फिर राशन कार्ड और या कोई अन्य काम। किसी भी सरकारी काम में देरी नहीं होती थी। लोग इमरजेंसी के सिर्फ एक पहलू को देखते हैं। कुछ ज्यादतियों को छोड़कर, आज के परिपेक्ष्य में यदि इमरजेंसी को देखें तो वह उतनी बुरी नहीं लगेगी।
पूर्व प्रधान मंत्री श्री मन मोहन सिंह ने भी अपनी किताब एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर में इमरजेंसी का जिक्र करते हुए लिखा है की श्रीमती गाँधी को भी इमरजेंसी के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी और इसके अंजाम से भी वो वाकिफ नहीं थी। इसके अलावा कोमी कपूर ने अपनी किताब इमरजेंसी में इमरजेंसी लगाने के फैसले को इंदिरा गाँधी की विवशता बताया है और संजय गाँधी को इसके लिए जिम्मेदार बताया है। वैसे आपातकाल लगाने वाले निर्णय के इतर देखें तो इंदिरा गाँधी एक ऐसी शख्सियत थी जिसकी राजनीतिक सूझबूझ और निर्भीक व्यक्तित्व का देश मे ही नहीं अपितु विदेशों मे भी लोहा माना जाता है। आज भी हिन्दुस्तान मे कई महिलायें एवं लड़कियां उन्हें अपना आदर्श मानती हैं।