Manbir-Kaur-Charitable-Trust

World Father’s Day : बोए जाते हैं बेटे और उग आती हैं बेटियां। कवि नंदकिशोर हटवाल की यह कविता मुझे बहुत अपील करती है। कैसा है ना हमारा यह पुरुष प्रधान समाज जोकि आज भी बेटा और बेटियों में अंतर करता है। फिर भी खुशी की बात यह है कि इक्कीसवीं सदी के इन इक्कीस वर्षों में सामाजिक मानसिकता में थोड़ा बहुत बदलाव जरूर आया है, लेकिन हमें आज भी बहुत बदलाव की दरकार है। जब मैं अपने बारे में सोचती-विचारती हूं तो मैं अपने आपको को बहुत खुशनसीब समझती हूं कि रब ने मुझे ऐसे घर में भेजा है, जहां बेटा-बेटी एक समान महज एक नारा नहीं होकर जीवन की हकीकत है। आज World Father’s Day के मौके पर आपको अपने पिता जी सरदार अमरीक सिंह जी से रूबरू कराती हूं। यद्यपि मेरे पिता जी 11 फरवरी 2021 को इस दुनिया जहान से रुखसत होकर उस दुनिया में चले गए हैं जहां से आज तक ना तो कोई लौट कर आया है और ना ही कभी आएगा। लेकिन मेरे पिता ने जो संस्कार और समझ मुझे दी है उसके आधार पर मैं आपसे अपनी कुछ यादें, अपनी कुछ बातें साझा करना चाहती हूं।

मेरी मां मनबीर कौर एक पांव से विकलांग थी। जी हां दिव्यांग के लिए विकलांग शब्द के इस्तेमाल पर आप चौंकिये मत उस जमाने में ना केवल विकलांग बोला जाता था बल्कि समझा और माना भी जाता था। वो मेरे पिता ही थे जिन्होंने मेरी मां को कभी भी विकलांग नहीं समझा बल्कि दिव्यांग ही माना है।Manbir-Kaur-Charitable-Trust

जैसा कि हर बेटी के लिए उसके पापा दुनिया के सबसे अच्छे पापा होते हैं वैसे ही मेरे पापा जी भी मेरे लिए दुनिया के सबसे अच्छे पापा हैं। यहां पर मैं ‘थे’ की जगह ‘हैं’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रही हूं कि मेरे आचार, व्यवहार और संस्कार में आज भी मेरे पापा की आत्मा मेरे में बसती है। चार साल की थी मैं उस वक्त कि पैर की बीमारी के चलते मेरी मां का एक पैर डॉक्टरों को काटना पड़ा था। सोलह सालों तक मेरी मां ने ओएनजीसी के आफिस में सर्विस की। अपने आफिस से राजपुर रोड तक मां का आना-जाना पब्लिक ट्रांसपोर्ट, देहरादूनवासियों की भाषा में कहूं तो ‘विक्रम’ से होता था। शाम के समय पिताजी सड़क पर मां के आने का इंतज़ार किया करते थे। उस जमाने ना तो पेजर हुआ करते थे और ना ही आज के जमाने की तरह ही मोबाइल फोन हुआ करते थे। बस एक आपसी समझ और सूझबूझ हुआ करती थी दोनों में कि इतने बजे छुट्टी होती है तो विक्रम के राजपुर रोड तक पहुंचने में इतना समय लगता है। आज भी मुझे और मेरे छोटे भाई कुंवरदीप उर्फ विक्की को जब वो दिन याद आते हैं तो मम्मी के प्रति पापा का लगाव याद आ जाता है।

मेरे डैडी एयर फोर्स में थे इसलिए जाहिर सी बात है कि उनके विभागीय तबादले भी हुए थे। लेकिन देहरादून से बाहर रहने के बावजूद भी वो अपने घर-परिवार और बच्चों के कितने करीब थे यह एक सुखद अहसास की अनुभूति कराता है।

मां भले ही एक पांव से लाचार थी लेकिन मन और इरादों से इतनी मजबूत थी कि उनके हौसले का हर कोई सम्मान करता था। दिव्यांग होने के बावजूद भी मेरी मां मनबीर कौर हमेशा-हमेशा लाचार, मजबूर और बेसहारा लोगों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहती थी। समाजसेवा के थोड़े बहुत काम को आज अगर मैं अंजाम दे पा रही हूं तो यह मेरे माता-पिता की सीख और समझ का ही प्रतिफल है। मेरी मां 58 साल की उम्र में हम सबको छोड़कर चली गई लेकिन मां के जाने के बाद भी हमने समाजसेवा के प्रति उनके समर्पण को जिंदा रखा और उनकी याद में मनबीर कौर ट्रस्ट का गठन किया। मुझे इस बात का संतोष है कि जिस तरह से मेरे पिताजी ने आखिरी वक्त तक मेरी मां का साथ दिया ठीक उसी तरह से मां की याद में बनाए गए चैरिटेबल ट्रस्ट में भी वह आखिरी दम तक साथ निभाते रहे। हमें सीख, समझ और सही-गलत का रास्ता बताते रहे।

आज मेरे डैडी नहीं हैं लेकिन उनसे जुड़ी यादें उनसे जुड़ी बातें मेरे जेहन में रची-बसी हैं। पढ़ाई को लेकर मैं शुरू से ही औसत दर्जे की छात्रा रही हूं लेकिन मेरे डैडी थे कि हर क्लास में हर जमात में मुझे इस बात का अहसास कराना नहीं भूलते थे कि पढाई की इंसान की जिंदगी में क्या अहमियत है।

डैडी कहते थे पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ सिलाई, कड़ाई, बुनाई और खाना पकाना आना भी बहुत जरूरी है। डैडी के हाथों के बने गरमागरम पकोडों का तो क्या ही जी कहना है।

मेरी जितनी भी सहेलियां घर में आती थी डैडी जी उनकी खूब खातिरदारी किया करते थे और कहते थे बेटियों को बाप के घर में खूब सुखी रखना चाहिए बाकी उनकी किस्मत और रब की मर्जी। डैडी जी ने कभी भी लड़का और लड़की में भेद नहीं किया और नाही कभी वो यह कहते थे कि फलां खेल लड़कों का है फलां खेल लड़कियों के लिए नहीं है। उन्होंने मुझे टाइप और शार्टहैंड का कोर्स भी कराया तो साथ ही साथ कंप्यूटर की बेहतर से बेहतरीन तालीम भी दी।

परसों की ही तो बात है कि एक पत्रकार ने मुझे फोन करके कहा कि 20 जून को World Father’s Day आ रहा है। आप अपने और अपने पापा से जुड़े कुछ संस्मरण साझा कर सकें तो हम एक फीचर स्टोरी फाइल करना चाहते हैं। बातचीत करते-करते मेरा गला भर आया और आंखें डबडबाने सी लग गई। तभी मुझे ऐसा अहसास हुआ कि डैडी जी कह रहे हैं कि रमन मां-बाप कभी किसी के हमेशा साथ नहीं रहे हैं।

आज वर्ल्ड फादर्स-डे है मैं उन सभी बच्चियों और बहनों से कहना चाहती हूं कि अपने पिता,पापा और डैडी को ज्यादा से ज्यादा खुशियां देने की कोशिश करें क्योंकि पिता के चले जाने के बाद पिता से जुड़ी बातें और पिता से जुड़ी यादें ही पूंजी होती है, धरोहर होती है मेरी ही तरह हरेक बेटी की।

Happy World Father’s Day।

(लेखिका रमनप्रीत कौर, मनबीर कौर चैरिटेबल ट्रस्ट की अध्यक्ष हैं)