panya tree

उत्तराखंड सहित दुनिया के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले खूबसूरत पंय्यां के पेड़ का वैज्ञानिक नाम प्रुनस सेरासोइडिस है। पंय्यां को अंग्रेजी में हिमालयन वाइल्ड चेरी, बर्ड चेरी, हिन्दी में पद्म, पदमख या पदमकाष्ठा, संस्कृत में चारू, हिमा, कैदरा, मालाया, पदमागन्दी तथा नेपाली में पैयु के नाम से जाना जाता है। वैसे तो औसधीय गुणों से भरपूर पंया वृक्ष का इस्तेमाल दवाईयां बनाने में किया जाता हैं, परन्तु भारतीय संस्कृति में देव वृक्ष यानी देवताओं का पेड़ माने जाने वाले पय्यां का उत्तराखंड खासकर पहाड़ में एक विशेष महत्व हैं। उत्तराखंड में धार्मिक आस्था का प्रतीक माने जाने वाले पंय्यां के पेड का सीधा संबंध सांस्कृतिक रीति रिवाजों से भी है। गांव में होने वाली शादियों मे प्रवेश द्वार पर पंय्यां की शाखाऐं लगाई जाती हैं। इसके अलावा शादी का मंडप भी पंय्यां की शाखाओं और पत्तियों के बिना अधूरा माना जाता है। धार्मिक दृष्टि से पंय्यां का बड़ा महत्व है। पंया की लकड़ी को चंदन के समान पवित्र माना जाता है। हवन में पंय्यां की लकड़ी का इस्तेमाल पवित्र माना जाता है। पंय्यां की पत्तियों वाली डाल को पवित्र मानकर इसका उपयोग धार्मिक कार्यों में किया जाता है। जिस तरह शहर में लोग आम की पत्तियों की माला घर के द्वार पर गृह प्रवेश या हवन इत्यादि के बाद लगाते हैं ठीक उसी तरह उत्तराखंड मे इस पेड़ की पत्तियों का इस्तेमाल होता है।

 

बसंत ऋतु में गाँव में फूलों से लदे पंय्यां के पेड़ की खूबसूरती देखने लायक होती है। गढ़रत्न नरेन्द्र सिंह नेगी ने बसंत ऋतु में उत्तराखंड की खूबसूरती पर जो गीत लिखा है उसमे पंयाँ का भी जिक्र आता है। “लय्या, पंय्यां ग्विराळ फूलों ना होलि धरती सजीं देखि ऐई…बसंत ऋतु मा जैई.”, इसके अलावा पुराने लोकगीत “सेरा की मींडोळी नै डाळी पंय्यां जामि..” में भी पंय्यां का जिक्र आता है। उत्तराखंड में पंय्यां प्राकृतिक रूप से 1200 से 2500 मीटर की ऊँचाई तक गांवों के आस पास कृषि खेतों के किनारों पर पाया जाता है। पंय्यां को रोपड़ करके 500 मीटर की ऊँचाई पर भी आसानी से उगाया जा सकता है। धार्मिक आस्था वाले बृक्ष पंय्यां की लम्बी आयु होती है।

पर्यावरण की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण पय्यां उत्तराखंड के अलावा हिमाचल प्रदेश, कशमीर, आसाम में अका तथा खासी हिल्स, मणिपुर, साउथ वेस्ट चाइना, बर्मा तथा थाइलैंन्ड तथा नेपाल आदि क्षेत्रों में भी पाया जाता है।

उत्तराखंड में यह वृक्ष काफी मात्रा में मिलता है लेकिन लोगों की उपेक्षा के कारण अब इन पेड़ों की संख्या धीरे धीरे कम होती जा रही है जो की एक चिंता का विषय है। पय्यां का वृक्ष गुणों की खान माना गया है। इन्हीं गुणों के कारण लोगों द्वारा पंय्यां के पेड़ का अत्यधिक दोहन तथा रोपड़ ना के बराबर करने की वजह से आज पंय्यां विलुप्ति होने की कगार पर आ गया है।

पंय्यां के फायदे

  • पंय्यां आदि काल से ही महत्वपूर्ण जड़ी-बूटियों व अन्य उपयोगी वनस्पतियों के भण्डार के रूप में विख्यात है।
  • पंय्यां के फल ऐसट्रिन्जैंन्ट होते हैं। पय्यां के फलों का सेवन पेट की कई समस्याओं को दूर करने में फाइदेमन्द बतलाया गया है।
  • पय्यां पके फलों का सेवन पाचन तंन्त्र को ठीक रखने में मददगार माना गया है।
  • पंय्यां के पेड़ की छाल का रस बैकपेन (कमरदर्द) के लिये लाभकारी माना गया है।
  • पंय्यां के फलों में एमिगडालिन, प्रुनासिन पाया जाता है। इसका सेवन सांस लेने की तकलीफ में राहत प्रदान करने वाला बतलाया गया है।
  • पंय्यां के फूले बृक्ष लीन पीरियड में मधुमख्खी पालन वालों के लिये लाभकारी माने गये हैं। इसके फूलों के परांगण का सेवन मधुमख्खियों द्वारा शुद्व एवं गुणकारी कार्तिक शहद के रूप में हमें उपलब्ध कराया जाता है।
  • पय्यां के पेड़ की छाल से टेनिन तथा पत्तियों से ग्रीन डाई तैयार की जाती है।
  • पय्यां के बीजों से प्राप्त किये गये तेल को फार्मास्यूटिकल परपज में इस्तेमाल किया जाता है।
  • पय्यां के सूखे बीजों का इस्तेमाल बीड्स, नैकलेस बनाने में किया जाता है।
  • स्थानीय लोगों द्वारा पंय्यां की डाल की लकडी़ को राजमा के पौधों की बढ़वार, ककडी़, लौकी इत्यादि की बेल बढ़वार के लिये इस्तेमाल किया जाता है।
  • धार्मिक दृष्टि से पंय्यां की पत्तियों वाली डाल को पवित्र मानकर उपयोग किया जाता है। जिस तरह शहर में लोग आम की पत्तियों की माला घर के द्वार पर गृह प्रवेश या हवन इत्यादि के बाद लगाये जाते है ठीक उसी तरह उत्तराखंड मे इस पेड़ की पत्तियों का इस्तेमाल होता है।
  • पंय्यां के पेड की छाल को दवा के साथ ही रंग बनाने मे भी प्रयोग किया जाता है।
  • पंय्यां की लकडी को भी चन्दन के सम्मान पवित्र माना गया है। हवन मे पंया की लकडी का इस्तेमाल करना पवित्र माना जाता है।
  • पंया के पेड़ की लकडी़ को विशेष रूप से ढोल ढमाऊं बजाने के काम में भी लाया जाता है। पंय्यां के पेड़ की लकडी़ से वाद्ययंत्र (डोल दमाऊँ) बजाने से दासों द्वारा अलग ही राग पैदा किया जाता है।
  • पय्यां की पत्तियों का इस्तेमाल गाय, बकरियों के सुखे विछोने के रूप में भी किया जाता है, जो आगे चलकर उर्वरा शक्तिदायक खाद का काम करती है।
  • पंय्यां के पेड का सांस्कृतिक महत्व भला कौन नहीं मानता होगा।
  • रीति रीवाजों के अनुसार, शादी में प्रवेश द्वार पर पंय्यां की शाखाऐं लगाकर निर्माण किया जाता है। साथ ही शादी का मंडप भी पंय्यां की शाखाओं के बगैर अधूरा माना जाता है।
  • पय्यां की लकडी़ मजबूत होती हैं, जिस कारण इसका इस्तेमाल सिर्फ जलाने तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि इससे गेहूं कूटने वाला डंडा, गाय, भैंस बांधने के कीले, कृषि उपकरणों के हत्थे भी बनाये जाते हैं।
  • पंय्यां का पर्णपाती बृक्ष बहुत ही खूबसरत होने के कारण शोंन्द्रीकरण के लिये भी काफी उपयुक्त माना गया है।

डॉ. विजय कान्त पुरोहित
हाई एल्टीट्यूड प्लांट फिजियोलॉजी रिसर्च सेंटर (HAPPRC), श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड