Uttarakhand state

9 नवम्बर 2018 को अपना उत्तराखण्ड 18वां वर्ष पूरा कर रहा है। अपना राज्य जवान हो रहा है। 9 नवम्बर 2000 को उत्तरांचल के रूप में कई वर्षों के आन्दोलन के बाद इसका जन्म हुआ। लेकिन ऐनकेन प्रकारेण कुछ राजनीति और कुछ खुद के हितों को साधने के साथ इस राज्य का नाम जनवरी 2007 में बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। सन् 2000 में अपने गठन से पूर्व यह उत्तर प्रदेश का एक भाग था। पारम्परिक हिन्दू ग्रन्थों और प्राचीन साहित्य में इस क्षेत्र का उल्लेख उत्तराखण्ड के रूप में किया गया है। हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है। राज्य में हिन्दू धर्म की पवित्रतम और भारत की सबसे बड़ी नदियों गंगा और यमुना के उद्गम स्थल क्रमशः गंगोत्री और यमुनोत्री तथा इनके तटों पर बसे वैदिक संस्कृति के कई महत्त्वपूर्ण तीर्थस्थान हैं।

देहरादून को  उत्तराखण्ड की अन्तरिम राजधानी बनाया गया हैं, लेकिन गैरसैण को राजधानी के पटल पर लाने के लिए आज तक आंदोलनकारियों का संघर्ष जारी है। पहाड़ की राजधानी पहाड़ पर के नारों के साथ आज भी कई संगठन सड़कों से गांवों-गांवों तक संघर्षत हैं। सत्ता में विराजमान लोग कहते हैं कि गैरसैण एक छोटा कस्बा हैं, इसकी भौगोलिक स्थिति राजधानी के लायक नहीं हैं, यहां संसाधनों का अभाव हैं, तो राजधानी कैसे यहां बनाई जा सकती है? लेकिन चुनाव के वक्त इन्हें गैरसैंण राजधानी की रूप में याद आ ही जाती है। दरअसल गैरसैंण को लेकर बने इनके घोषणा पत्रों ने कई बार इन्हें सत्ता के करीब ही नहीं पहुंचाया अपितु सत्ता दिलाई भी. लेकिन पहाड़ फिर भी खुद के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है।

रोजगार की बात करें तो आज भी पहाड़ के लोग निरंतर रोजगार के लिए मैदानों की तरफ बढ़ रहे है, और गांव-गांव खंण्डहर हो रहे है। जबकि हर सरकार ने 17 वर्षों से पलायन आयोग से लेकर पलायन रोको अभियान के नाम पर करोड़ों रूपये का बजट स्वीकार किया भी और बांटा भी, लेकिन फिर भी पहाड़ हर दिन खंण्डहर हो रहे है। खेत-खलिहान बंजर हो रहे है।

सन 2000 में 27वें राज्य के तौर पर जन्म लेने वाला उत्तराखंड राज्य 18वें वर्ष में प्रवेश कर ‘बालिग’  होने जा रहा है। लेकिन इसके बालिग खुद के वजूद को बनाए रखने के लिए, खुद के जीवन की तलाश में आज भी शहरों की तरफ रूख कर रहे हैं। क्योंकि इन सालों में इनके लिए किसी भी सरकार ने कोई ऐसा ठोस कदम नहीं उठाया कि इन्हें पहाड़ पर रहने के लिए वह सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं, जो वास्तव में इन्हें चाहिए।

इस पहाड़ी राज्य उत्तराखंड को अपने शुरुआती दौर से ही काफी पीड़ा सहनी और देखनी पड़ी। फिर चाहे वो राज्य निर्माण के लिए संघर्ष हो या राज्य गठन के बाद राजनीतिक उठापटक, बदलाव हो या पहाड़ों की आपदा हो लेकिन आज भी यहां के वाशिंदों के जहन में एक ही सवाल उभरता है कि इन 17 वर्षों में पहाड़ की तकदीर और तस्वीर कितनी बदली है? इन 17 वर्षों में इस राज्य के लिए संघर्ष कर रहे कई आंदोलनकारी हम से बिछड़ गए हैं तो, 18वें वर्ष में कदम रखते-रखते ना जाने कितने गांव खाली हो गए हैं, ना जाने कितने लोग अपनी जमीन छोड़कर पलायन कर गए और तमाम राजनीतिक दल बस देहरादून से बैठकर ही सत्तासुख भोग रहे है।  आज के समय में बात करें तो आज 70 सीटों वाली राज्य विधानसभा में राज्य के नौ पर्वतीय जिलों को जितनी सीटें आवंटित हैं उससे कुछ ज्यादा सीटें राज्य के चार मैदानी जिलों के पास हैं। राज्य का पर्वतीय भूगोल सिकुड़ चुका है। 2011 के जनसंख्या आंकड़े बताते हैं कि राज्य के करीब 17 हजार गांवों में से एक हजार से ज्यादा गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। 400 गांवों में दस से कम की आबादी रह गई है। 2013 की भीषण प्राकृतिक आपदा ने तो इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है और पिछले तीन साल में और गांव खाली हुए हैं। हाल के अनुमान ये हैं कि ऐसे गांवों की संख्या साढ़े तीन हजार पहुंच चुकी है, जहां बहुत कम लोग रह गए हैं या वे बिल्कुल खाली हो गए हैं।

ऐसे में जब सरकार विकास की बात करती हैं तो आप समझ सकते हैं कि विकास के असल मायने उत्तराखंड के लिए क्या  हो सकते है। जिन आंदोलनकारियों ने राज्य निर्माण के लिए अपना सब कुछ दे दिया उनकी सुध लेने वाला आज कोई नहीं है। वह आज भी अपने जीवन के संघर्षों कंधे पर थैले लटाकए घूम रहे है।

स्वास्थ्य-शिक्षा के क्षेत्र में भी पहाड़ निरंतर पिछड़ रहे है। पहाड़ के दूरस्थ क्षेत्रों में बसे गांव में आज स्वास्थ्य-शिक्षा की हालत आज क्या हैं यह किसी से छुपा नहीं है। भले ही गांव-गांव तक पहाड़ पर सड़क पहुंच गई है। लेकिन इन गांवों में स्कूल और अस्पताल हर दिन खाली होते जा रहे है। जिनके लिए सरकार के पास भले ही योजनाएं हों, लेकिन वह सिर्फ और सिर्फ कागजों तक ही सीमित हैं, धरातल पर इनके लिए कोई योजनाएं आज तक पुख्ता तौर पर नहीं उतरी नहीं है।

इसलिए इस 18 साल के राज्य में अभी बहुत कुछ खोया है, पाने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं हैं कि जो कहा जाएं यह कि राज्य सही मायने 18 साल का जंवा हो गया है।   जगमोहन ‘आज़ाद’ देवभूमिसंवाद.कॉम