यह सौभाग्य भारत को ही प्राप्त है कि जहां हर प्रांत में पहनावा-ओढ़ावा बदलता रहता है। कश्मीर की वेशभूषा, नागालैंड से अलग तो है, पर दोनों ही अनोखी और खूबसूरत हैं। उसी तरह महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में धोती पहनने का रिवाज अलग-अलग तो है, पर हैं दोनों मनोहारी। वस्तुतः भारत में एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक भौगोलिक परिसम्पत्तियां और परम्पराएं इतनी तेजी से बदलती हैं कि किसी एक जगह की वेशभूषा देखकर कोई यह दावा नहीं कर सकता कि उसने समूचे भारत के पहनावे को देख लिया है।
भारतीय परम्परा में पहनावे को तन ढकने के साधन से ज्यादा महत्ता कभी नहीं दी गयी। धार्मिक विचारों से रची-बसी संस्कृति में त्याग भावना घनीभूत थी। शुरू से ही कहा जाता रहा है कि रूखा-सूखा अन्न और मोटा-झोटा कपड़ा मनुष्य के लिए पर्याप्त हैं। किन्तु भारतीय वातावरण की आवश्यकता, कलात्मक अभिव्यक्ति और शालीनता परिधान की एक बहुत समृद्ध परम्परा उकेरने में सफल रहे हैं।
जहां खेतों में खड़ी महिलाएं तपती दोपहरी में दिन भर खेतों की कटाई करती हैं, वहां के वस्त्रों की बनावट अलग तरह की होती है। उसी तरह आसाम के चाय बगानों में काम करने वाली महिलाओं के वस्त्र दूसरी तरह के होते हैं। इन बागानों में दिन में कई बार पानी बरसता है और ये महिलाएं बड़ी सी टोकरी लटकाये चाय की पत्तियां एकत्रित करती घूमती रहती हैं। पीठ पर इनका बच्चा बंधा रहता है जो अपनी मां के क्रिया-कलापों को टुकर-टुकुर देखता रहता है। बिहार की वेशभूषा भी यहां की खेती-किसानी के परिवेश से सीधी जुड़ी है। पानी भरे खेतों में यहां लोगों को कड़ी मेहनत से धान की रोपाई करनी पड़ती है। निःसंदेह यहां के वस्त्रों की परम्परा भी धीरे-धीरे वैसे ही ढलती गयी।
पुरुषों और स्त्रियों के लिये इसमें जो बंधन है वह कुनबे विशेष की अपनी मान्यताओं के कारण है। इसलिए जहां तक हर प्रांत के परम्परागत वस्त्रों की बात है, उसमें तन का ज्यादा हिस्सा ढका रहता है। कहते हैं मुगलकाल से पहले भारत में कपड़ों के सिलने की परम्परा नहीं थी या हो सकता है कि पुराने समय के वर्णन में दर्जी को नाचीज समझकर उसके हुनर का बखान करना लेखक और कलाकार भूल गये हों। इसके अलावा तमाम पुरानी भारतीय पुस्तकों में कपड़ों को टेसू के रंग में रंगने की परम्परा, मोर के पंखों से वस्त्रो के सजाने इत्यादि का वर्णन मिलता है।
पश्चिमी पहनावे पर आस्कँवाइल्ड ने एक जगह लिखा है कि इतनी बदसूरती, इतनी भयानक कि उसे प्रत्येक 6 महीने में बदलना पड़ता है। भारत में भी पानी के बुलबुले की तरह खूब सारे ‘ड्रेस डिजाइनर’ आये, पर जल्दी ही विलुप्त हो गये। सदियों से अपनायी जाने वाली और जांची-परखी पद्धति में ओछे प्रयोग टिक न सके क्योंकि भारत की वस्त्र परम्परा तन को उघाड़ने का छिछला साधन नहीं है, बल्कि इसका अर्थ संस्कृति की नैतिकता से भी जुड़ा है।
यह भी पढ़ें: