Birds nests get burnt due to forest fire

Forest fire: इन दिनों उत्तराखंड के जंगल आग से धधक रहे हैं। जंगलों में बीते कुछ दिनों से लगी भीषण आग से एक ओर जहाँ राज्य को करोड़ों की वन संपदा का नुकसान हो रहा है। वहीँ जंगलों में लग रही आग से बेजुबान पशु पक्षियों का बहुत ज्यादा नुकसान हो रहा है। जंगलों में लगातार आग लगने से पशु-पक्षियों का बसेरा उजड़ रहा है। आग लगने से जंगली जानवर तो भाग कर अपनी जान बचा लेते हैं, परंतु पेड़ों पर बने पक्षियों के घोंसले आग में जल जाते हैं। जिस कारण घोंसलों में पल रहे चिड़ियों के नन्हे बच्चे या अंडे भी घोंसलों के साथ ही जलकर राख बन जाते हैं। आग की घटनाओं से वन संपदा को तो नुकसान होता ही है, पर्यावरण भी प्रदूषित हो जाता है। राज्य में अब तक आग की कुल 998 घटनाओं में 1316.12 हेक्टेयर जंगल को आग की भेंट चढ़ चुके हैं।

तिनका-तिनका जोड़कर बनाते हैं घोंसला

एक चिड़िया जनवरी-फरवरी या उत्तरायण में साथी की तलाश में निकल पड़ती है, काफ़ी जद्दोजहद के बाद घोंसला बनाने के लिए सुरक्षित स्थानों की तलाश, उसके बाद दिन-रात की मेहनत के बाद, उमंग उल्लास में नई शुरुआत, जनन प्रजनन की तलाश, अनगिनत बाधाओं के पश्चात् अप्रैल-मई आते आते पहाड़ी क्षेत्रों में अधिकतर जंगली फल फूल तैयार जैसे हिंसर, किनगोड़, काफल, बुरांस, घिंघर आदि अंडो से निकलने वाले नये बच्चों चूजों को खाना मुहैया कराने की तलाश। फिर अचानक जंगल की आग, तलाश खत्म लाश ही लाश।

अधजली, नंगी, अधमरी, मुरझाई, सिकुड़ती धरती पानी के लिए त्राहिमाम। आखिर उनकी भी आत्मा है, जिनकी पहचान हम नहीं कर पा रहे हैं, या करना ही नहीं चाहते। कब तक सहानुभूति से काम चलेगा। बरसात की तलाश में कितनी लाशें होगी, गिनती कम हो जायेंगी। हमारे बच्चे की उंगली पर जरा सा जलता है तो मरहम ढूंढ़ते है,उनके जिन्दा जलने पर मरहम कौन देगा।

शिक्षक पंकज सुन्द्रियाल बताते हैं कि वे बीते 20 सालों से हर बढ़ते साल के साथ जंगल जलने की कुत्सित घटनाएं बढ़ रही है. जैसे पहाड़ के पहाड़ जल रहे हैं, जिसकी वजह से असीमित समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं। जिसके प्रकोप से हम चैन से नहीं रह सकतें।

आग की सबसे बड़ी जड़ चीड के पेड़ है।

जंगलों में लगने वाली आग से न सिर्फ वन संपदा बल्कि वेशकीमती जीवन व खाद्य श्रृंखला भी तबाह हो रही है। इस आग में केवल वहीं पेड़ पौधे बच पाते हैं, जिनका डिसपरसल आफ शीड अग्नि द्वारा होता है जिनमें पाइन (चीड़) पहले स्थान पर है। चीड़ से उत्पन्न हर चीज में ज्वलनशील पदार्थ पाया जाता है। इसका क्षेत्र वर्ष में दो से तीन बार जलता है। इसके कई कारण हो सकते हैं। यह पेड़ कहीं भी उग सकता है क्योंकि बीज का विखराव आग से हुआ है, यह अचानक गर्म हवा में किसी भी जलवायु व परिस्थिति में अनुकूलता प्राप्त कर सकते हैं।

बचपन में हमने देखा है कि हमारे हरे भरे जंगलों में अन्धांधुध रूप से चीड़ का वृक्षारोपण किया गया। आज वहां सिर्फ चीड़ के जंगल है बाकी वनस्पतियां खत्म हो चुकी है, तब पूरा गांव जंगल की आग बुझाने जाता था और सफल भी हुआ, परन्तु धीरे धीरे आग विकराल रूप लेने लगी और चीड़ उतनी ही तेजी से बढ़ता रहा। आज चारों तरफ चीड़ के पेड़ दिखाई दे रहे है और कुछ पर्यावरण प्रेमी भी इन्हें बचाना चाहते है, एक दिन पहाड़ रेगिस्तानी रुप ले सकता है, यदि वनाग्नि नहीं रोकी गयी, विशाल आबादी बारिश न होने से खांसी-जुकाम, आंखों में जलन और बुखार से पीड़ित हो सकती है।

और यह सभी हमें और आपको ही सोचना होगा। हर मौसम में जंगलों के बारे व उसके स्वास्थ्य के बारे में सोचना होगा तभी हम स्वस्थ रह सकते हैं।

समस्या बड़ी है पर उसे रोकना उतना मुश्किल नहीं है

  • चीड़ का धीरे-धीरे उन्मूलन ।
  • ठंड के मौसम में फायर बेल्ट बनाना।
  • चीड़ व लैटिना की पत्तियों का व्यवसायिक लाभ देना।
  • बरसात के मौसम में जंगलो में बीजों का छिड़काव, खुदान।
  • पत्तियों व सूखी लकड़ियों का उठान
  • जगह जगह बने पार्टी स्थलो से प्लास्टिक कूड़ा का प्रबंधन।
  • ग्रामीणों को जागरुक करना।
  • हर धार में आपातकाल मे पानी की व्यवस्था।
  • हम एक सुनियोजित तरीके से धीरे धीरे जंगलों में लगने वाली आग पर काबू पा सकते हैं। एक प्रदूषण मुक्त पहाड़ की खुशहाली व पहचान का हम भरोसा दे सकते हैं। जहां उनकी भी पहचान हो, जो हमारे पड़ोसी हैं और कुछ माइग्रेशन कर पहाड़ पर पधारते हैं।