विशुद्ध रूप से क्लर्क बनाने वाली इस आधुनिक शिक्षा पद्धति में भारतीय नक्षत्र विज्ञान की कला घुट कर रह गयी है। जो देश नक्षत्र विज्ञान और गणित की जानकारी पूरी दुनिया को देता था उस देश के बच्चे अब चन्द्रमा के अतिरिक्त किसी और चमकते ग्रह, उपग्रह या तारे को नहीं पहचान सकते। क्योंकि इनके अध्ययन करने से न तो नौकरी के इतने अच्छे मौके ही मिल पाते हैं और न ही अन्य विषयों की तरह इसको प्राथमिकता दी गयी है। अपने नक्षत्रों के विषय में इतनी उदासीनता पहले कभी सोची भी नहीं जा सकती थी। दावों, आकड़ों के विषय में बात छोड़ दें और केवल अनुभव की बात करें, तो प्राचीन भारत में अपने तारा-मंडल को पहचानने की समृद्ध विरासत ही है। पहले हर गांव के अलाव के पास बैठा बूढ़ा, छिटकी चांदनी में बच्चों को तारे पहचानवाता था। इनके स्थानीय नाम होते थे। बच्चों को तारों से परिचित करवाने के लिए इनकी अपनी कहानियां होती थीं। उद्देश्य था कि बच्चे तारा-मंडल के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानें और उनके अन्दर कौतूहल जागे कि हम आखिर कार अनन्त के किस कोने में रहते हैं? यही परिचय बच्चों के अन्दर सहज उत्सुकता पैदा करता था जो उनकी प्रतिभा-विकास का अभिन्न हिस्सा होता था। कहानियों में आता है ‘ध्रुव का राज्य अटल है।’ आधुनिक संवेदनशील तकनीक के अध्ययन के बाद शोधकर्ताओं ने पाया है कि हमारी आकाशगंगा भी एक बिन्दु के चारों तरफ घूम रही है और जिस धुरी पर घूम रही है ध्रुव तारा उसके सबसे नजदीक है। यानी आकाशगंगा में ध्रुव के अतिरिक्त सभी ग्रह, उपग्रह और तारे चलायमान हैं। ध्रुव तारे को आकाशगंगा में लगभग अटल कहा जा सकता है। कोई नहीं जानता कि ‘बांस की नली’ से नक्षत्रों पर नजर गड़ाये भारतीय अन्तरिक्षवेत्ता इन रहस्यों को कैसे जानते थे? और इनके चरित्र से मिलती-जुलती लोक-कथाएं कैसे चलन में आयीं? इसी तरह से चार कोनों में चार तारे और उनके साथ तीन तारों की श्रंखला का भारतीय पुस्तकों में ‘सप्तऋषि’ के रुप में वर्णन किया गया है। कथाओं में वर्णन आता है कि सप्तऋषि पूरे ब्रह्माण्ड में हर जगह विचरते हैं और सदैव ‘बाल-अवस्था’ में ही रहते हैं। कुछ भी हो, इन वर्णनों से बच्चों में अपने तारा-मंडल के प्रति चाव बढ़ता था। इसके अलावा अंतरिक्ष में बनने वाले तमाम चित्रों के आधार पर अंतरिक्ष ज्ञान को भारत में जिस तरह से समेटने की कोशिश की गयी वह पूरे विश्व मे दुर्लभ है। बचपन से ही बच्चे अपनी मां की गोद में दुबके हुए आसमान में छिटकी चांदनी को निहारते थे और तलाशते थे कुछ अपने जैसे चेहरे। पर अब यह बीते जमाने की बात हो गयी है। घनी आबादी में जिंदगी गुजारते परिवारों में कुछ ऐसे भी बच्चे हैं जिन्होंने कभी पूरा आसमान तक नहीं देखा। बढ़ते प्रदूषण ने भी रही-सही कमी पूरी कर दी है। अब न तो कोई ऐसा बूढ़ा होता है जो सभी बच्चों को साथ बैठाकर बताये कि सूरज और चन्द्रमा आखिर किस बात पर झगड़ गये थे और ध्रुव तारा आसमान से पृथ्वी की ओर नीचे क्यों झांकता रहता है?
आज जरुरत इस बात की है कि भारत के इन तमाम नक्षत्रों की कहानियों और लोक-कथाओं का संग्रह होता, तमाम क्षेत्रों में फैले नक्षत्र-ज्ञान को समेटा जाता। निश्चित रुप से आने वाली पीढ़ियों के लिए यह एक अमूल्य धरोहर होती ! आने वाली पीढ़ी में अपने नक्षत्रों के बारे में उत्सुकता बनी रहती, तो इसकी भी पुरजोर उम्मीद बनी रहती कि भारत में भी विश्वस्तर के नक्षत्र वैज्ञानिक होते। सारा माजरा क्रिकेट के खेल जैसा है। लोगों की क्रिकेट मे उत्सुकता के चलते ही, तो अच्छे-अच्छे खिलाड़ी सामने आये। पर अब ऐसी बात नहीं है। भारत में नक्षत्रों को जानने-पहचानने की समृद्ध विरासत किसी उल्का की तरह आसमान से टपक चुकी है और एक सफेद धुंध की लकीर बची है जिसे देखकर उस पर आंसू बहाये जा सकते हैं।